यदि हमारे भगवान वीतरागी हैं तो हम पूजा के मन्त्रों में पूज्य पद के साथ चतुर्थी का प्रयोग क्यों करते हैं? (आशय - उनके नाम पर पूजन की सामग्री क्यों चढ़ाते हैं?)
बाबूजी युगलजी कृत चैतन्य की उपासना में इसका विस्तार किया है। वैसे तो यह पूरा अध्याय (जिनपूजन का स्वरूप) ही पढ़ने लायक़ है लेकिन उसके कुछ अंश यहाँ पर प्रस्तुत है। इस पूरे अध्याय में निश्चय-व्यवहार का अद्भुद समागम देखने को मिलता है।
पढ़ा!
किन्तु सीधा उत्तर नहीं है। मेरा प्रश्न पूजा की सामग्री या फल नहीं अपितु भगवान के नाम पर ही क्यों चढ़ा रहे हैं - यह है?
साथ ही अन्य धर्मानुयायी भी ऐसा ही करते हैं।
वीतरागी के नाम पर द्रव्य चढ़ाना - कुछ ज़्यादा नहीं हो गया?
भगवान ने नाम पर नहीं चढ़ा रहे है। अपने प्रयोजन हेतु चढ़ा रहे है।
संसार-ताप विनाशनाय चंदनं निर्वापामीति स्वाहा।
आदि।
भगवान को याद कर अपने प्रयोजन (जन्म-ज़रा-मृत्यु विनाश) के हेतु।
देव-शास्त्र-गुरु को याद कर अपने मोक्ष फल हेतु।
आदि।
वीतरागी की तो पूजा, भक्ति करना, उनके गुण गाना ही ज़्यादा हो जाएगा (द्रव्य चढ़ाना तो बहुत दूर की बात है), अगर उनको खुश करने के नाम पर चढ़ाया तो।
इसके साथ कहते हैं - देव-शास्त्र-गुरुभ्यो। जिसका सीधा-सा अनुवाद है - देव-शास्त्र-गुरु के लिए।
यही तो दुनिया कहती है तो हममें और उनमें क्या अंतर है?
मुझे परेशानी भक्ति, पूजा, स्वाध्याय, स्तुति या वन्दना से नहीं है अपितु उसके करने के तरीके से है।
इसका अन्य कोई उपाय?
इसकी खोज करनी चाहिए कि ये मंत्रादि बनाए किसने हैं? यदि अयोग्य हैं तो इनका निषेध करना ही योग्य है।
यह बात पहले क्यों नहीं ख्याल में आई हम लोगों के यह विषय वास्तविकता में गंभीर है।
खोज कैसे शुरू हो?