स्तुति की दार्शनिक मीमांसा

क्या मिथ्या देवादि की स्तुति और सच्चे देव आदि की स्तुति की जाति एक ही है?

मूल में शब्द सीमित है और भाव अधिक है,
अर्थात भावो को समजाने के लिए शब्द उतने नही है।

इसी अपेक्षा से कई बार दोनो की स्तुति की जाती एक हो ऐसा भासित होता है
जैसे
“आप ही सुख के दाता हो”
“आप ही संकट से निकालने में तारणहार हो”
“आप से ही मेरा कल्याण होगा”
“आपकी चर्चा मात्र से मेरे पापों का नाश होगा”
“आपके गुणों की महिमा करनेमें में सक्षम नही हूँ”

परंतु यहाँ भावना में अंतर है
यहां सुख अर्थात शाश्वत निराकुल सुख
वहां सांसारिक सुख की चाह है
इस तरह हम सभी मे लगा सकते है।

यदि हम लघुतत्वस्फोट पढ़ते है तो वहां के शब्द इतने सुंदर है कि कहीं पर भी एक जाति जैसा भासित नही होता पुर्णरूप से शब्दो मे भी निर्दोष बतलाया है।

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इस विषय में मेरी समझ -

शब्दात्मक स्तुति की जाति एक है।
सतही भावनात्मक जाति भी एक ही है, क्योंकि सब से स्वर्ग मिल सकता है। किन्तु दार्शनिक वैभिन्य और सूक्ष्म फलात्मक वैभिन्य है। अकर्तावाद के आधार से दार्शनिक अन्तर है और वास्तविक सुख और उच्च स्वर्ग-पद प्राप्ति के आधार पर फलात्मक अन्तर भी है ही।