जैन शिक्षा का उद्देश्य

मानव जीवन में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा का प्रारम्भ कब से हुआ यह निश्चित कर पाना उतना ही कठिन है। जितना कि मानव की उत्पत्ति का। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि जबसे मानव है तब से शिक्षा भी है। बच्चा जन्म लेता है और जन्म से मृत्यु पर्यन्त वह हमेशा कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। यह ‘सीखना’ ही शिक्षा है। शिक्षा शब्द ‘शिक्ष’ धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ होता है- 'सीखना और सिखाना" शिक्षा के लिए ज्ञान, विद्या आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। परन्तु जहाँ तक मैं | समझता हूँ, ‘शिक्षा’ और ‘विद्या’ में अन्तर है। शिक्षा एक प्रक्रिया है जिससे समाज का विकास होता है, प्रगति होती है। किन्तु विद्या के अन्तर्गत चौर्य विद्या भी आती है जिससे व्यक्ति या समाज को प्रगति की अपेक्षा उसके विकास में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार विद्या ही है। कहा भी गया है विद्या ददाति विनयम् ।

जैन ग्रन्थ आदिपुराण में विद्या के महत्व को प्रकाशित करते हुए कहा गया है- विद्या ही मनुष्यों को यश प्राप्त कराने वाली है, विद्या ही पुरुषों का कल्याण करने वाली है, विद्या ही सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली है, कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ और कामरूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है। विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ-साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है। अतः कन्या या पुत्र दोनों को समान रूप से विद्योपार्जन कराना चाहिए।

१ इदं दमद शीलमनोदशम् । विद्यया द्विभूप्येत सफलं जन्मवामिदम् ॥ विद्यावान पुरुषो लोकेसंगति याति कोविदः । नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृप्टेरग्रिम पद्म || विद्या यशस्करी पुंसां विद्या श्रेयस्करी मता सम्बगाराधिता विद्यादेवता रामदायिनी ॥ विद्या कामदुहा धेनुविधा चिन्तामणितूंणाम् । त्रिवर्गफलिता सूते विद्या संपत्परम्पराम् ॥ विद्या बन्धुरच मित्रं च विद्या कल्याणकारकम् । सहयापि धनं विद्या विद्या सर्वार्थसाधनी तद् विद्याग्रहणं यत्नं पुत्रिके कुस्तं युवाम् । सत्संग्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्त्ततेऽघुना

                        आधनिक शिक्षा के उद्देश्य 

आज की शिक्षा का उद्देश्य मात्र धनोपार्जन ही रह गया है। वह शिक्षा जो मानव को मानव ही नहीं अपितु मुक्त बनाने वाली थी, जो दुःखों से मुक्तकर शाश्वत सुख प्रदान करने वाली थी, आज केवल धन और आजीविका का एकमात्र साधन रह गया है। इस यान्त्रिक युग में शिक्षा मी यान्त्रिक हो गयी है। जिस प्रकार यन्त्र बिना सोचे-समझे अपना कार्य करता रहता है उसी प्रकार वर्तमान युग का विद्यार्थी भी किताबों को क्षरशः रटकर डिग्री हासिल कर नौकरी प्राप्त करना हो शिक्षा का उद्देश्य मान बैठा है। यह भूल न तो विद्यार्थियों की है और न शिक्षकों की ही बल्कि गलती उस समाज को है जिसने शिक्षा से ज्यादा धन को महत्व दे रखा है। आज जो शिक्षा समाज में दी जा रही है वह विद्यार्थी को डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनाने में तो सक्षम है परन्तु मानव को सच्चा इन्सान नहीं बना पा रही है। क्योंकि शिक्षा के साथ सेवा और श्रम का भाव व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो रहा है। चारों ओर स्वार्थता का बोलबाला है। स्वार्थपूर्ति के लिए भयंकर से भयं कर पाप किये जा रहे हैं। परिणामतः मनुष्य की नैतिकता गिरती जा रही है।

ऐसी स्थिति में हमारी केन्द्रीय सरकार ने नई शिक्षा नीति (१०+२+३) निर्धारित किया है जिसका मुख्य उद्देश्य सबको नये रोजगार के अवसर प्रदान करना तथा देश को इक्कीसवीं सदी के मध्य संसार के अन्य देशों के समकक्ष खड़ा करना है। इस नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत त्रिभाषा फार्मूला पारित किया गया है- (क) राष्ट्रभाषा हिन्दी, (ख) विदेशी भाषा, (ग) प्रादेशिक भाषा | इस त्रिभाषा फार्मूला में संस्कृत, प्राकृत और आज की शिक्षा का उद्देश्य मात्र धनोपार्जन पालि को कोई स्थान नहीं दिया गया है। परिणामतः संस्कृत, प्राकृत और पालि जिनमें भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप निहित है, नष्ट हो जाएगा।

                            आधुनिक शिक्षण प्रणाली 

आधुनिक शिक्षण प्रणाली तत्कालीन भारत सचिव लार्ड मैकाले द्वारा मानी जाती है। जिसकी नींव मैकाले ने अपने परिपत्र द्वारा सन् १९३५ में डाली थी। जिसका उद्देश्य था भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के स्तर को ऊंचा उठाना। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने मदरसे खोले जिसके परिणामस्वरूप भारतीय केवल रंग के भारतीय तथा मन से यूरोपीय सभ्यता के अनुयायो बनकर रह गये। शिक्षा का धर्म और नैतिकता से सम्बन्ध टूट गया तथा शिक्षा का क्षेत्र इहलोक तक ही सीमित होकर रह गया ।

अंग्रेजी शिक्षण प्रणाली का हो दुष्परिणाम है कि जो शिक्षा और संस्कार बालक को मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। आज की शिक्षा अव्यावहारिक तथा अधूरी है जो समाज को, देश को बेरोजगारी की ओर अग्रसर कर रही है। इस प्रणाली ने छात्र को किताबी कीड़ा तो बना दिया है लेकिन विषय का मर्मज्ञ नहीं बना सकी। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि ये आधुनिक शिक्षा नैतिकता, सहनशीलता, चरित्र निर्माण, त्याग, तप, अनुशासन तथा विनम्रता आदि गुण की दृष्टि से सर्वथा असफल रही है। आज न वे अध्यापक हैं, न वह छात्र और न वह शिक्षण केन्द्र ही, जहां गुरु और शिष्य दोनों पिता-पुत्र के समान रहते थे। समय के अनुकूल हर चीज में परिवर्तन होता रहता | है। अतः यह कहा जा सकता है कि समय और युग के अनुकूल मानव समस्या, आवश्यकता और उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप शिक्षा का आयाम भी बढ़ता जा रहा है।

आज के इस विज्ञान और तकनीकी युग में हम शिक्षा को तीन श्रेणियों में विभाजित करके देख सकते हैं- (क) उच्चतम (ख) मध्यम और (ग) निम्न उच्चतम श्रेणी में चिकित्सा, आभियान्त्रिकी, कम्प्यूटर आदि की शिक्षा मानी जाती है। मध्यम श्रेणी में कला, वाणिज्य आदि की शिक्षा तथा निम्न श्रेणी में संस्कृत साहित्य, वेद-वेदांग आदि की शिक्षा मानी जाती है।

इस प्रकार हम जैन शिक्षा और आधु पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि जैन इहलौकिकता के साथ-साथ पारलौकिक शिक्षा दी जाती थी वहीं आज की शि आधुनिक शिक्षा के नाम से जाता है, में लौकिकता का ही समावेश है। यद्यपि परिवेश में अब प्राचीन शिक्षण प्रणाली नायी जा सकती किन्तु शिक्षा के उद्देश्य क अनुकूल शिक्षा को बनाया जा सकता है। इस क्षेत्र में पहल करने के लिए सर्वप्रथम बालक को समाज के प्रति संवेदनशील बनाना होगा जिसके लिए परिवार और विद्यालय के बीच सार्थक संवाद होना आवश्यक है। साथ ही प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक समाज हितोपयोगी आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा का होना आवश्यक है। परन्तु आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का भी सामंजस्य होना चाहिए। जैसा कि जैन शिक्षण प्रणाली में है। इतना ही नहीं प्रत्येक शिक्षार्थी को रूचि के अनुकूल जीविकोपार्जन के लिए कुशल बनाया जाए।

अह पंचहि ठाणेहि जेहि सिक्खा न लब्भई । कोहा पाए रोगेणालस्सएण य।

जिस व्यक्ति में अहंकार अधिक है- गर्व में फूला रहता हो, बात बात में क्रोध करता हो, शरीर में आलस्य भरा रहता हो, किसी प्रकार को व्याधि जथवा रोग से ग्रस्त हो, जो शिक्षा प्राप्ति में उद्यम अथवा पुरुषार्थ न करे-ऐसे व्यक्ति को शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती।

संदर्भ सूची :-
आदि पुराण
उत्तराध्यन सूत्र
शिक्षा प्रणाली
नीतिवाक्याम्रत