भारतीय साहित्य में काशी का योगदान।

जैन संस्कृति के प्रवर्तक तीर्थंकर

जैन संस्कृति को प्राचीन काल में श्रमण संस्कृति कहा जाता था और जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं, नदी के दो घाट होते हैं ऐसे ही प्राचीनकाल से वैदिक और श्रमण दोनों संस्कृतियां मिल जुलकर समानांतर रूप से चलती आ रही हैं। काशी एक बहुत बड़ा भारतीय संस्कृति का केन्द्र है। तो वहां प्राचीन काल से जैन संस्कृति भी बहुत अधिक पल्लवित एवं विकसित होती रही है। उसी की एक झलक जैन संस्कृति वहां किस तरह रही जैन आचार्य वहां कौन-कौन हुए उनको मैं बहुत संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूं।

जैन संस्कृति के प्रवर्तक मुख्य रूप से चौबीस तीर्थंकर माने जाते हैं और आपको जानकर ये आश्चर्य होगा कि चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकरों का जन्म बनारस/ काशी में ही हुआ है। अयोध्या के बाद ऐसी शायद दूसरी नगरी होगी कि जहां पर इतने ज्यादा तीर्थंकरों का जन्म हुआ हो। चार-चार तीर्थंकरों ने जन्म लिया, बाल लीला की और बाद में तपस्या करके धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया और इन चार तीर्थंकर के नाम जरूर जानने योग्य हैं। सबसे पहले सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, बनारस में जो भदेनी घाट है वहां पर इनका जन्म हुआ था। आज भी इनकी जन्मभूमि के स्थान पर वहां बहुत सुंदर जैन मंदिर बना हुआ है।

आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ नाम से हैं। बनारस के पास ही चन्द्रावती बिल्कुल लगी हुई जगह है। बनारस उस समय पूरा राज्य था काशी राज्य तो लगा हुआ उसके पास चन्द्रावती ग्राम है वहां चन्द्रप्रभ तीर्थंकर का जन्म हुआ।

ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ हैं। जो सारनाथ में उनका जन्म हुआ इसे सिंहपुरी थी कहते हैं जो कि पन्द्रह-सोलह किलोमीटर दूर ही स्थित है।

तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ वे बनारस के केन्द्र/हृदयस्थान में जिसे आज भेलूपुर के नाम से हम आज जानते हैं वहां जन्म हुआ और वो एक क्रांतिकारी घटना इतिहास में भी दर्ज है बाकी तीर्थंकरों की बातें तो जैन पुराणों के आधार पर सिद्ध होती है लेकिन पार्श्वनाथ की घटना को तो इतिहास भी स्वीकार करता है। क्योंकि ये घटना आज से २८०० वर्ष लगभग २७९० वर्ष पुरानी बात है। जब वहां पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था और उस समय का सारा चित्र, सारा परिदृश्य इतिहास में अंकित है कि उस समय बनारस एक बहुत बड़ा जैन केन्द्र था। वहां के राजा भी जैन थे। आज से २८०० वर्ष पहले बनारस का राजा जैन था। उनका नाम था विश्वसेन, उनकी रानी का नाम था वामादेवी और उन्हीं के राजकुमार थे पार्श्वनाथ जो बाद में बहुत बड़े जैन आचार्य होते हुए जैन तीर्थंकर बने। उन्होंने पूरे विश्व में जैन-धर्म का बहुत प्रवर्तन किया। प्रचार-प्रसार किया और बाद में वे सम्मेदशिखर, शिखरजी के नाम से है। जो कि झारखंड में है। सम्मदेशिखर में जो पार्श्वनाथ नाम का पहाड़ है। वहां पार्श्वनाथ नाम का रेलवे स्टेशन है। वहां से वे मोक्ष पधारे थे। पार्श्वनाथ के बारे में इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी पार्श्वनाथ पर अनेक पदों का निर्माण किया है। तुम्हीं तो पारसनाथ हो पियारे। ऐसे उन्होंने कई पदों का निर्माण किया है। पार्श्वनाथ जैन संस्कृति के मूलाधार हैं और वे बनारस से संबंधित हैं इससे सिद्ध होता है कि बनारस का जैन संस्कृति से बड़ा ही घनिष्ठ संबंध है। पार्श्वनाथ के नाम पर यहां तक कहावत चलती है कि ‘जहां की मिट्टी भी पारस है उसका नाम बनारस है‌।’ तो ऐसा वो आज भी संपूर्णानंद में पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं हैं। जगह-जगह वहां पार्श्वनाथ और अन्य जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं मिलती हैं।

इसके बाद हम आगे बड़ते हैं तो एक बहुत बड़े जैन आचार्य हुए हैं समंतभद्र। समंतभद्र नाम के एक धुरंधर नैयायिक, तार्किक एवं दार्शनिक आचार्य हुए हैं। जिन्होंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आप्तमीमांसा, युक्त्यानुशासन, स्तुति विद्या जैसे महान संस्कृत काव्यों की, दार्शनिक ग्रंथों की रचना की वे थे समंतभद्र। यद्यपि दक्षिण भारत में रहने वाले थे लेकिन बाद में बनारस आए काफी दिन तक बनारस ही रहे और कहते हैं उन्होंने वहां बहुत बड़ा एक शास्त्रार्थ किया था वो ज़माना शास्त्रार्थ का था और उन्होंने उस शास्त्रार्थ में स्याद्वादसिद्धान्त के बल पर बहुत बड़ी विजय भी प्राप्त की थी। उनको भस्मक व्याधि रोग भी हुआ था। वहां पर उन्होंने फटे महादेव का मंदिर है उसमें रहकर के उन्होंने वो रोग को दूर किया था ऐसा सब वर्णन जैन ग्रंथों में और इतिहास में मिलता है। बनारस में जैन आचार्यों की परम्परा में समंतभद्र का नाम सूर्य चंद्र के समान है।

उसके बाद एक आचार्य यशोविजय हुए उनको कौन नहीं जानता है। यशोविजय आचार्य हुए जिन्होंने १६-१७वीं शताब्दी में जैन दर्शन पर पच्चीसों ग्रन्थों की रचना की अष्टसहस्त्री आदि ग्रंथों की व्याख्या की। नव्य न्याय के बहुत गहरे, तार्किक आचार्य यशोविजय के नाम पर वहां पर अभी भी यशोविजय नाम से पाठशाला चलती है।

इसके अलावा वहां पर एक स्याद्वाद विद्यालय अभी भी चलता है। जिसमें बहुत सारे जैनाचार्य तैयार हुए हैं और वो गणेश प्रसाद वर्णी, काशी के जैनाचार्यों में सबसे ज्यादा स्वर्णाक्षरों में नाम लिखने लायक नाम है। ये बहुत बड़े जैनाचार्य हुए इनको अनेक समयसारादि ग्रन्थ कण्ठस्थ थे और इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैन दर्शन विभाग की स्थापना कराई पण्डित मदनमोहन मालवीय से मिलकर, गणेश प्रसाद जी वर्णी का योगदान बहुत लंबा समय मांगता है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने गांधी जी के साथ मिलकर के जिस तरह स्वतंत्रता का अलख जगाया था वो बहुत गौरव पैदा करता है। उनकी ‘मेरी जीवन गाथा’ पढ़ ली जाए तो बहुत कुछ पता चलता है। गणेश प्रसाद जी वर्णी ने ही पुस्तक लिखी है मेरी जीवन गाथा।

इसके बाद जिनेन्द्र प्रसाद जी वर्णी हुए उन्होंने भी बहुत काम किया। उन्होंने ही ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश’ के भाग तैयार किए जो कि भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना भी बनारस में ही हुई थी। भारतीय ज्ञानपीठ यद्यपि आज दिल्ली में चलता है लेकिन भारतीय ज्ञानपीठ को जन्म देने का श्रेय काशी को है। काशी में अनेक जैन संस्थाएं बनीं और फिर यहां वहां महानगरों में जा बसीं और वर्तमान में भी स्याद्वाद विद्यालय के अलावा एक बहुत सुन्दर ‘गणेश वर्णी शोध संस्थान’ है नरिया में वहां पर जैन दर्शन का अध्ययन, अध्यापन, प्रकाशन होता है। एक पार्श्वनाथ विद्याश्रम भी B.H.U. के बगल में लगा हुआ है वहां भी अनेक आचार्य हैं। ये जो स्याद्वाद विद्यालय है इसमें इतने आचार्य काशी के हुए हैं कि अगर उनका इतिहास टटोलो तो १०० की संख्या अभी में पार कर सकता हूं। पण्डित सुखलाल संघवी जी थे, प्रज्ञाचक्षु थे लेकिन इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों की बहुत टीका की है और उनके पास हजारी प्रसाद द्विवेदी जी घर जाकर के ज्ञानचर्चा करते थे और कहते थे कि मैं इनके पास आता हूं तो मेरा असली गंगा-स्नान हो जाता है।

इसके अलावा एक पण्डित कैलाशचन्द्र जी जैन शास्त्री थे बहुत धुरंधर, सिद्धान्ताचार्य थे। बनारस ने अनेक जैन न्याय तीर्थों को जन्म दिया है। न्याय विधा को विकसित और पल्लवित करने में बनारस का योगदान स्तुत्य है। उनमें ये कैलाशचन्द्र जी शास्त्री सिद्धान्ताचार्य का नाम भी बहुत ही उल्लेखनीय है।

इसके बाद एक पण्डित फूलचंद जैन सिद्धांत शास्त्री हुए जिन्होंने धवला ग्रंथ का जो २ लाख श्लोक प्रमाण है। २लाख श्लोक प्रमाण ३९ भागों में उस ग्रंथ का प्राकृत, संस्कृत मिश्रित उस ग्रंथ के संपादन का काम किया ऐसे धुरंधर आचार्य पण्डित फूलचंद जी शास्त्री हुए।

फिर एक महेंद्र कुमार जी जैन न्यायाचार्य वो तो मानो भारतेंदु के अवतार थे जैसे भारतेंदु ने बहुत छोटी आयु में बहुत ज्यादा साहित्य लिखा ऐसे ही महेंद्र कुमार जी न्यायाचार्य ४८ वर्ष की अल्पायु में चले गए थे लेकिन उन्होंने जो काम किया है उनके काम को देखकर किसी को भी बहुत अधिक आश्चर्य हो सकता है। जैनन्याय के जिन ग्रन्थों का एक पैराग्राफ नहीं लगा सकता वैसे उन्होंने २० ग्रंथों का अपने जीवन काल में संपादन किया।

इसके बाद वहां पर एक बनारसीदास जी जैन नाम के बहुत बड़े कवि जिन्होंने हिन्दी की सबसे पहली आत्मकथा लिखी ‘अर्द्ध कथानक’, ‘समयसार नाटक’, बनारसीदास का नाम ही बनारस के नाम पर पड़ा यद्यपि वे जौनपुर के रहने वाले थे और बाद में वो जीवन के अंत में आगरा आ गए थे लेकिन उनका बनारस से बहुत गहरा संबंध रहा। ये बनारसी दास तुलसीदास से भी मिले थे और दोनों ने आपस में एक-दूसरे की रचनाओं को देखकर बहुत अच्छे पद लिखे थे।

फिर एक वृन्दावन दास बहुत बड़े जैनाचार्य हुए उन्होंने प्रवचनसारादि अनेक ग्रंथों की टीका लिखी और अंग्रेजों के शासनकाल में वे अंग्रेजों के कोषाध्यक्ष/खजांची थे और टकसाल का काम करते थे जैसे जो काम आज रिजर्व बैंक करता है वो काम किया करते थे।

बनारस प्रारंभ से लेकर आजतक, वर्तमान में भी वहां पर अनेक जैन विद्वान रहते हैं, जैन विद्या का बहुत गहरा अध्ययन होता है। एक आचार्य पण्डित फूलचंद जी शास्त्री अभी भी हैं जो संपूर्णानंद से सेवानिवृत्त हुए। एक प्रोसेसर कमलेश कुमार जी हैं। अनेक विद्वान जैन विद्या के लेखन, अध्यापन, प्रचार-प्रसार में तो बनारस प्राचीन काल से आज तक निरंतर जैन संस्कृति का एक बहुत ही अनूठा केन्द्र रहा है।

वक्ता:- प्रो. वीरसागर जी जैन, दिल्ली