उपयोग सम्बन्धी विचार

प्रश्न - दर्शनोपयोग के काल में कर्म बंधन किस प्रकार होता है इसका आगम प्रमाण बतावें।

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दर्शनोपयोग

:scroll:आत्म समाधि में लीन महायोगियों को तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते हैं, परंतु लौकिकजनों को वे क्रम से होते हैं। यद्यपि सभी संसारी जीवों को इंद्रियज्ञान से पूर्व दर्शन अवश्य होता है, परंतु क्षणिक व सूक्ष्म होने के कारण उसकी पकड़ वे नहीं कर पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते हैं। निज स्वरूप का परिचय या स्वसंवेदन क्योंकि दर्शनोपयोग से ही होता है,

:scroll: इसलिए सम्यग्दर्शन में श्रद्धा शब्द का प्रयोग न करके दर्शन शब्द का प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होने के कारण ही सम्यग्दर्शन को सामान्य और सम्यग्ज्ञान को विशेष धर्म कहा है।
(ref= जैन कोष दर्शनोपयोग)

:maple_leaf:विश्लेषण

:scroll:इससे यह ख्याल में आता है,मिथ्यात्व से सम्यक्त्वमें जीव आएगा तब सर्व प्रथम दर्शनोपयोग का और श्रद्धा मिथ्यात्व से सम्यक्त्व में परिणमन होना दोनो एक ही समय मे एक दूसरे के निमित्तनैमित्तिकरूप से होगा ।और उसी समय 41 प्रकृति की बंधव्यूछिति हो जाएगी। ( चतुर्थ गुणस्थानकी अपेक्षा)

:scroll:ऐसा ही सम्यक्त्व से मिथ्यात्वमें आएगा तब सर्व प्रथम दर्शनोपयोग और श्रध्दा दोनो एक ही समय मे एक दूसरे के निमित्तनैमित्तिकरूप से होगा उसी समय परिणमन होगा और उससे ही कर्म की अवस्था उस अनुसार हो जाएगी। ऐसा सभी गुणस्थानो में लगाना।

:bulb:यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि कर्म बंधका मूल कारण तो मोहनीय ही रहेगा अगर मोहनीय में मिथ्यात्वतो उसी अनुसार कर्म बंध और दर्शमोह्निय में सम्यकप्रकृति का उदय उसी के अनुसार अन्य गुणों का निमित्त रूप से परिणमन और कर्म बंध की अवस्था देखने मे आती है।हमे पुरुषार्थ तो मोहनीय में ही करना है।

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मुझे ऐसा लगता है कि ज्ञानोपयोग के संस्कार वश ही यहाँ भी मोह-राग-द्वेष बने रहते हैं भले ही यहाँ ज्ञेय का परिज्ञान निश्चित न हो।

लेकिन इस एक बात को छोड़कर आपका बाकी सारा सन्देश bouncer ball वत् था।

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