संयम, तप एवं त्याग में अंतर स्पष्ट कीजिए।
संयम- इन्द्रिय मन control
तप - desire control
त्याग- रागादि विकारों का त्याग
Simply, विकार से रहित होने की process कह सकते हैं।
ये बहुत स्थूल अंतर है जो ख्याल में आया है।
सुधार हों तो बताइयेगा।
संयम, तप, त्याग चारित्र गुण की ही पर्यायें है। निश्चय से तो तीनों शुद्धोपयोग ही है:
- शुद्धोपयोग: अर्थात अपने स्वरुप में ही संयमित रहना
- शुद्धोपयोग: अपने स्वरुप की आराधना है इसलिए तप है
- शुद्धोपयोग: सम्पूर्ण बाह्य प्रवृत्ति का त्याग
लेकिन जब मुनिराज (या फिर यथायोग्य पंचम और चतुर्थ गुणस्थान जीव) शुद्धोपयोग में नहीं रह पाते तो चारित्र की विकारी पर्याय (शुभोपयोग) के प्रकार निम्न रूप से कर सकते है
- संयम: बाह्य विषयों (प्रवृत्ति) से बचने का पूर्ण पुरुषार्थ (इसलिए समिति, गुप्ति आदि का पालन)
- तप: आत्मस्वरूप में लीनता का पुरुषार्थ, शुद्धोपयोग करने का पुरुषार्थ
- त्याग:
त्याग रोचक विषय है। जिसका ग्रहण किया उसका त्याग होता है। परद्रव्यों को तो ग्रहण कर ही नहीं सकते है, फिर उसका त्याग कैसे? त्याग केवल मोह-राग-द्वेष का होता है जो कि अपनी सत्ता में है।
लेकिन निश्चय से देखा जाए तो मोह-राग-द्वेष भी विकार है और आत्मा की शुद्ध सत्ता में नहीं है। तो फिर उनका भी त्याग कैसे हो? वास्तव में जब अपने ज्ञान स्वभाव को पहचाना और उसमें परिणत हुए तो उसका “side-effect” मोह-राग-द्वेष का सत्ता में उत्पन्न नहीं होना है - वही त्याग है। मोह-राग-द्वेष का “त्याग” नहीं होता, उनका पर्याय में अभाव होने को त्याग कहते है।
समयसार गाथा ३४ (ज्ञान प्रत्याख्यान है) वाली गाथा त्याग के विषय में अध्ययन करने योग्य है।