क्या 4 कषाय में, आपस में हीन और उच्च का भेद पाया जाता है। जैसे अनंत अनुबंधि क्रोध vs अनंत अनुबंधि मान।
और क्या 5 पाप में भी आपस में हीन - उच्च का भेद है। हम सामन्यतः हिंसा, चोरी, कुशील को बड़ा पाप मानते है पर झूट और परिग्रह पर उतना seriously जोर नहीं देते है, ऐसा क्यों?
दीपेश जी,
साधु प्रश्न हैं।
प्रथम प्रश्न
क्रोध-मान-माया-लोभ में मनोवैज्ञानिक हीनता-उच्चता तो प्रत्यक्ष में तनावग्रस्त होकर स्वास्थ्य पर होनेवाले असर से स्पष्ट है ही। अतः क्रोध को सर्वाधिक हानिकारक कहा जाता है।
किन्तु आगम साहित्य में कभी क्रोध को मुख्य करके तो कभी मान को मुख्य करके, तो कभी किसी अन्य कषाय को मुख्य करके बात हुई है।
प्रत्येक कषाय के नाश का क्रम है - क्रोध का मान में संक्रमण, मान का माया में और माया का लोभ में संक्रमण होता है। अतः इनमें सबसे हीन क्रोध और सबसे प्रबल लोभ माना जा सकता है।
वैसे भी लोभ को पाप का बाप कहा जाता है और मिथ्यात्व को उसका नियन्त्रक।
इस सम्बन्ध में जैनेन्द्र वर्णी जी कहते हैं - क्रोधादि की तीव्रता मंदता को लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्ति की तीव्रता मंदता को अनंतानुबंधी आदि द्वारा।
Extra -
धवला 12/4,2,7,86/52/6-7
=माया, लोभपूर्वक उपलब्ध है। वह (मान) क्रोधपूर्वक देखा जाता है।
दूसरा प्रश्न
पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में हिंसा को सबसे बड़ा पाप और अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म कहा है; क्योंकि इनमें ही बाकी के समा जाते हैं।
बाकी आपका अनुभव बिल्कुल उचित है कि परिग्रह को सामान्यतः लोग पाप में गिनते नहीं हैं, लेकिन सारे संविधान टैक्स चोरी, unaccounted wealth, mal practices in accounting, आदि के द्वारा परिग्रह पर भी रोकथाम करने का प्रयास करते ही हैं।
अन्तिम -
पाप तो पाप ही है और कषाय तो कषाय ही है। भले ही कितना भी छोटा या कितना ही बड़ा क्यों न हो।