“व्यापक”, “व्याप्य” और “व्याप्त” शब्दों के अर्थ पर कृपया प्रकाश डालें। जैसे ४७ शक्ति पर भरिल्ल जी की पुस्तक में एकत्व-अनेकत्व शक्ति में निम्न तरह से ये शब्द आयें है।
व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध/-
समयसार / आत्मख्याति/75 घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापक भाव…। =घड़े और मिट्टी के व्याप्य-व्यापकभाव का सद्भाव…।
न्यायदीपिका/3/67/106/5 साहचर्यनियमरूपां व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्म तद्वयाप्यम् …एतामेव व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्तृ तद्व्यापकम् …एवं सति धूममग्निव्याप्नोति, …धूमस्तु न तथाऽग्निं व्याप्नोति - । =साहचर्य नियमरूप व्याप्तिक्रिया का जो कर्म है उसे व्याप्य कहते हैं,…व्याप्ति का जो कर्म है - विषय है वह व्याप्य कहलाता है।…अग्नि धूम को व्याप्त करती है, किंतु धूम अग्नि को व्याप्त नहीं करता।
-प्रस्तुत अंश में आत्मा की एकता तथा अनेकता को व्याप्य-व्यापक धर्म से अभिहित करने का मन्तव्य लेखक का है, जैसा कि वे कहते हैं कि आत्मा एक द्रव्यमय क्यों है?, क्योंकि आत्मा अपनी अनेकानेक पर्यायों में व्याप्त है तथापि वे पर्याएँ द्रव्य से बाहर नही है और अनेकता भी उन्हीं प्रति-समयवर्ती पर्यायों के आधारशिला पर टिकी है कि वह द्रव्य है तो एक लेकिन भिन्न-भिन्न सम्यवर्ती पर्यायों में व्याप्त होने से अनेक है। (विशेष- प्रवचनसार गाथा 114 का विषय)
-जैसा सम्बन्ध संज्ञा तथा संज्ञी में है उसी प्रकार का सम्बंध व्याप्य तथा व्यापक में भी है।
(विद्वज्जन मार्गदर्शन करें।)