निश्चय व्रत, समिति, गुप्ति में अंतर?

व्यवहार से व्रत, समिति, गुप्ति में अंतर ख़याल आता है, जैसा मेरी समझ है वो इस प्रकार है:

  • व्रत: बाह्य विषयों से बचना
  • समिति: बाह्य विषयों की प्रवृत्ति के समय संयम
  • गुप्ति: व्यवहार के समय निश्चय में आने का पुरुषार्थ

(अगर उपरोक्त में गलती हो तो कृपया बताइए)।

प्रश्न: निश्चय समिति, गुप्ति, व्रत में कुछ अंतर है? पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनो ही शुद्धोपयोग ही है। या फिर ऐसा की बाह्य समिति के समय होने वाली “शुद्ध परिणति” निश्चय समिति है आदि, ऐसा? कृपया समाधान कीजिए।

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‘निश्चय समिति’ ऐसा उल्लेख तो ध्यान में नहीं है, लेकिन ‘सच्ची गुप्ति’, ‘सच्ची समिति’ इत्यादि की चर्चा पण्डित टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार में ‘संवरतत्त्व का अन्यथा रूप’ इस प्रकरण में की है। वह पूरा प्रकरण ही मूलतः पठनीय है।
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गुप्ति सामान्य का निश्चय लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/7यत: संसारकारणादात्मनो गोपनं सा गुप्ति:।=जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है वह गुप्ति है।
गुप्ति सामान्य का व्यवहार लक्षण
मू.आ./331मणवचकायपवुत्ती भिक्खू सावज्जकज्जसंजुत्ता। खिप्पं णिवारयंतो तीहिं दु गुत्तो हवदि एसो।331।=मन वचन व काय को सावद्य क्रियाओं से रोकना गुप्ति है। ( भगवती आराधना/ वि/16/61/30)।

निश्चय से व्रत का लक्षण
द्रव्यसंग्रह टीका/35/100/13निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्व-भावनोत्पन्नसुखसुधास्वादबलेन समस्त-शुभाशुभरागादि-विकल्पनिवृत्तिर्व्रतम्।= निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञानदर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ व अशुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है।
व्रत सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/7/1हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।1।= हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से (यावज्जीवन दे. भगवती आराधना / विजयोदया टीका तथा द्रव्यसंग्रह टीका ) निवृत्त होना व्रत है।

समिति
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/332/21 निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो गत: परिणत: समित:।
=निश्चय से तो अपने स्वरूप में सम्यग् प्रकार से गमन अर्थात् परिणमन समिति है।
सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/7 प्राणिपीडापरिहारार्थं सम्यगयनं समिति:।
=प्राणि पीड़ा का परिहार के लिए सम्यग् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। ( राजवार्तिक/9/2/2/591/31 )

व्याख्या तो बहुत नवीन और सुंदर की है आपने।

-रही बात शुद्धोपयोग की, तो नियमसारजी तो इसी के लिये समर्पित है, जहाँ आचार्य देव गुप्ति, समिति, व्रत, आवश्यक इन सभी शारीरिक क्रिया समझे जाने वाले तथ्यों को आत्मा पर घटित करके नवीन व्याख्या देने हेतु सजग हुए।
एवं उक्त सातवां अधिकार मननीय है।

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