समयसार गाथा २९७ में आया है की आत्मा को निर्विकल्प, अभेद चैतन्य अनुभूति मात्र ग्रहण करो, कि आत्मा सर्व-विशुद्ध चैतन्य मात्र है। बाद में २९८-२९९ में आया है कि चूंकि चैतन्य दर्शन-ज्ञान रुपी है इसलिए आत्मा को सर्व-विशुद्ध दर्शन-मात्र अनुभव करो और सर्व-विशुद्ध ज्ञान मात्र अनुभव करो।
प्रश्न: अगर आत्मा को अभेद निर्विकल्प ग्रहण करना है तो चैतन्य मात्र अनुभव का क्या मतलब हुआ? और अगर निर्विकल्प चैतन्य मात्र अनुभव करना है तो दर्शन-ज्ञान भेद क्यों करें? ज्ञान मात्र अनुभव में भेद नहीं आ गया? दर्शन मात्र में भेद नहीं आ गया?
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आपका कहना सही है।परंतु कथन शैली में वस्तु का भाव पकड़ाने के लिए ऐसे किया जाता है।
वास्तव में इस तरह का कथन आत्मानुभव की पूर्व भूमिका में जो विकल्प विकल्प उठता है जो कि आत्मानुभव भव होने में उत्कृष्ट निमित्त जैसा कार्य करता है।इसीलिए ऐसा कहा जाता है।
जेसै रहस्यपूर्ण चिट्ठी में प.टोडरमलजी ने कहा है,आत्मा की अनुभूति होने पूर्व में सिद्ध के समान हूँ इस तरह का विकल्प आता है, बाद में उसी में मग्न हो जाता है और अभेद रूप आत्मा का अनुभव होता है।
अनुभव के काल मे तो मात्र निर्विकल्प अनुभव ही है
अनुभव का कथन कर ही नही सकते इसीलिए पंचाध्यायी में इसको न तथा की उपमा दी है।
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पूर्णतः सहमत,अनुभव के काल मे तो मात्र निर्विकल्प अनुभव ही है. .