मूलनय कितने हैं?

आगम शैली में मूलनय - द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय कहे हैं, और अध्यात्म शैली में मूलनय - निश्चय नय और व्यवहार नय कहे है।
इसी के साथ हम मूलनय के संबंध में दो प्रकार से विचार भी कर सकते हैं।
१) पहला - वस्तु के स्वरुप के कारण मूलनय की उत्पत्ति, और २) दूसरा - वस्तु के स्वरुप को जानने/ कहने के कारण (अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिए ) मूलनय की उत्पत्ति।

१) चूँकि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक हैं, इसलिए वस्तु को जानने के लिए मूलनय के रूप में द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय कहे है। ये दोनों नय वस्तु के द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरुप का निरूपण करते है। इसलिए ऐसा कहा जा सकता हैं की मूलनय के रूप में द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की उत्पत्ति वस्तु के स्वरुप के कारण हुई है। इसीप्रकार भेद नय और अभेद नय, और अन्य नयो की उत्पत्ति वस्तु के स्वरुप के कारण हैं।

२) लेकिन, वस्तु के स्वरुप से अनभिज्ञ कोई जीव जब वस्तु के स्वरुप को जानने के लिए प्रयत्नशील होता हैं, तब उसके लिए वस्तु के स्वरुप का जानना (या कथन करना) दो तरह से संभव हो पता है। एक तो वस्तु के स्वरुप को उसके सच्चे रूप से जानना, और एक उसी वस्तु के स्वरुप को उसके उपचार रूप से जानना। जब वस्तु के स्वरुप को उसके सच्चे रूप से जानना संभव नहीं हो पाता हैं, तब वस्तु के स्वरुप को उसके उपचार रूप से (संयोग से, भेद से) जानना होता हैं। वस्तु के स्वरुप को उसके सच्चे रूप से जानना (या कथन करना) निश्चय नय हैं, और उसी वस्तु के स्वरुप को उसके उपचार रूप से जानना (या कथन करना) व्यवहार नय हैं। इसलिए ऐसा कहा जा सकता हैं की मूलनय के रूप में निश्चय नय और व्यवहार नय की उत्पत्ति वस्तु के स्वरुप को जानने/कहने के कारण हुई है।

अतः, जब वस्तु के स्वरुप की तरफ से बात करते हैं, तब मूलनय द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय है। और जब वस्तु के स्वरुप को कहने/जानने की तरफ से बात करते हैं, तब मूलनय निश्चय नय और व्यवहार नय है। अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिए निश्चय नय और व्यवहार नय की कथन शैली हैं, और उस कथन शैली के द्वारा द्रव्यार्थिक नय का विषय “द्रव्य” और पर्यायार्थिक नय का विषय “पर्याय” समझा जाता है।

चूँकि अध्यात्म शैली में अज्ञानी को ज्ञानी बनाने की मुख्यता हैं, इसलिए वहाँ निश्चय नय और व्यवहार नय प्रयुक्त होते हैं, और आगम शैली में वस्तु के स्वरुप को बताने की मुख्यता हैं, इसलिए वहाँ द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय प्रयुक्त होते है।

निश्चय नय और व्यवहार नय की परिभाषा:
वस्तु का सच्चा निरूपण सो निश्चय और उपचार निरूपण सो व्यवहा। निश्चय -व्यवहार का सर्वत्र ऐसा ही लक्षण हैं। (मो.मा.प्र.- 249)
द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की परिभाषा:
वस्तु के द्रव्य स्वरुप का निरूपण सो द्रव्यार्थिक नय और वस्तु के पर्याय स्वरुप का निरूपण सो पर्यायार्थिक नय।

(मुझे जो मूलनय, नय के संबंध में स्पष्टीकरण हुआ हैं, उसे यहाँ मैंने प्रस्तुत किया है। )

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बहुत सुन्दर