अवग्रह और अनध्यवसाय

अवग्रह और अनध्यवसाय में विषय की अपेक्षा से क्या अंतर है?

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जैनेन्द्र सिद्धांत कोष में श्री धवला ग्रन्थ के एक अंश को उद्धृत किया गया है:

धवला पुस्तक 9/4,1,45/145/2:

प्रश्न : (अनिर्णय स्वरूप होनेके कारण) अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनपर उसका संशय, विपर्यय व अनध्यवसायमें अंतर्भाव होगा?

उत्तर : नहीं, क्योंकि, अवग्रह दो प्रकारका है - विशदावग्रह और अविशदावग्रह। उनमें विशदावग्रह निर्णयरूप होता है और भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला अविशदावग्रह होता है।

प्रश्न : अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय रूप है?

उत्तर: ऐसा नहीं है क्योंकि वह कुछ विशेषोंके अध्यवसायसे सहित है। उक्त ज्ञान विपर्ययस्वरूप होनेसे भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, उसमें विपरीतता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि वह चूँकि विपर्यय ज्ञानका उत्पादक है, अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उससे विपर्ययज्ञानके उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं है। संशयका हेतु होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि, कारणानुसार कार्यके होनेका नियम नहीं पाया जाता, तथा अप्रमाणभूत संशयसे प्रमाणभूत निर्णय प्रत्ययकी उत्पत्ति होनेसे उक्त हेतु व्यभिचारी भी है। संशयरूप होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है (देखें अवग्रह - 2.1)। इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वंशके प्रति अविशदावग्रहको प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहारके योग्य है।

- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग 1, पृ. 182-83; अथवा online, अवग्रह, 2.1.

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