मोहनीय कर्म के अभाव स्वरूप प्रगट होने वाला गुण

मोहनीय कर्म के अभाव स्वरूप कौनसा गुण प्रगट होता है, सम्यक्त्व अथवा अनंत सुख?

चूंकि मोहनीय ही श्रद्धा और चरित्र गुण का घातक है, तो सम्यक्त्व प्रगट होना सही लगता है।

समाधान करें।

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अपेक्षाकृत कथन।

जिस प्रकार मोहनीय कर्म के दो भेद हैं - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। उसी प्रकार सुख गुण के दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र भेद हैं क्यूकि सुख का कारण भी मात्र यह दो गुण ही हैं।

चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्रगट होने से सुख प्रारम्भ हो जाता हैं फिर आगे आगे के गुणस्थान में चारित्र के प्रगट होने से सुख बढ़ता रहता हैं।

(सामान्य कथन) मोहनीय कर्म के अभाव में सुख गुण प्रगट होता हैं। (विशेष कथन) दर्शन मोहनीय के अभाव में दर्शन गुण प्रगट होता हैं तथा चारित्र गुण के अभाव में चारित्र गुण प्रगट होता हैं।

अरहंत भगवान के अनंत चतुष्टय में हम ‘अनंत सुख’ को लेते हैं तथा सिद्ध भगवान के अष्ट गुणों में सम्यक्त्व गुण को।

क्या ये सही है?

श्रद्धा तथा चारित्र गुण के सम्यक परिणमन होने पर पूर्ण/अनंत सुख होता हैं। सिद्धों में “सम्यक्त्व गुण” का अर्थ, श्रद्धा तथा चारित्र का सम्यक परिणमन। ज्ञान में सम्यक मिथ्या का उपचार श्रद्धा से होता हैं।

Both of these terms denote similar meanings. Not sure about the specific reason for different terminology used.

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मोहनीय कर्म के क्षय से जीव के क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र प्रकट होता है।
अरिहंत भगवान के ये गुण प्रकट होते है व इन्ही के साथ क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य उत्पन्न होते है।

परंतु, सिद्ध भगवान के दिव्यध्वनी ना ख़िरने के कारण, क्षायिक दर्शन व क्षायिक चारित्र का समावेश अनंत सुख में हो जाता है।

Why is it connected to Divydhwani?

I think, it’s Kashayik Charitra instead of Kshayik Gyan.

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Thank you for this. It was a mis-type.

It was in detail. Long story short, after destructing Mohniya karma, kshayik darshan as well as kshayik charitra are obtained but these both are assimilated in one gun i.e. anant sukh.

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मिथ्यात्व का सम्बन्ध 3 गुणों से है -

दर्शनमोहनीय - श्रद्धा
चारित्र मोहनीय - चारित्र

इन दो गुणों का सीधा सम्बन्ध - गुणस्थान/मोक्षमार्ग/ध्यान इत्यादि से है, जो सुख गुण की ओर इंगित कर रहे हैं।

अतः आगम में अरहंत को मोहनीय के अभाव में अनन्त सुख और सिद्धों को मोहनीय के अभाव में क्षायिक सम्यक्त्व ऐसे प्रस्तुतिकरण हैं।

दोनों उपचरित ही हैं। क्योंकि मूलतः कर्मों में यदि कोई दुख देने वाला है तो वह है मोहनीय, अन्य तो उपचरित हैं, और संसार में यदि कोई दुख देने वाले हैं तो वे हैं मोह-राग-द्वेष, अन्य तो उपचरित हैं।

दुखी ही दुख तो आमंत्रित करता है, सुखी तो सुख से वंचित ही नहीं होते।

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Let me try to sum it up. Please rectify if any error.

मोहनीय = दर्शनमोहनीय (मिथ्यादर्शन) + चारित्रमोहनीय (मिथ्याचारित्र)

सुख = श्रद्धा (सम्यक दर्शन) + चारित्र (सम्यक चारित्र)

मोहनीय के अभाव में सुख उत्पन्न होता हैं।

and to be more specific…

दर्शनमोहनीय के अभाव में सम्यक दर्शन उत्पन्न होता हैं।
चारित्रमोहनीय के अभाव में सम्यक चारित्र उत्पन्न होता हैं।

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This has one more clause, according to करणानुयोग, अनन्तानुबन्धी द्विस्वभावी प्रकृति है।

अतः चारित्र मोहनीय में 2 विभाव करने होंगे।

{नोट - सिद्धों में चारित्र गुण सम्बन्धी कोई भिन्न प्रस्तुतिकरण नहीं है अतः क्षायिक सम्यक्त्व में ही श्रद्धा और चारित्र को समाहित करना होगा। (सम्यक्त्व = सम्यक्पपना = दर्शन+ज्ञान+चारित्र में क्षायिकता)

इससे एक और विषय खुलता है - ज्ञान की क्षायिकता और उसकी सम्यक्ता में क्षायिकता}

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Bhaiya is vishay ka thoda sa detail accha rahega