उपशम सम्यक एक बार होने के बाद दुबारा कब होता है
सामान्यरूप से उपशम सम्यक्त्व का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तःमुहरत है।
!परंतु प्रथमोपशम सम्यक्त्व का काल अलग अलग तरह से उद्वेलना की अपेक्षा अलग अलग बताया है।
कषायपाहुड़ 2/2,22/248/111/6 अट्ठावीससंतकम्मिओ उव्वेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्ठी सत्तावीसविहत्तिओ होदि।=
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अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव (पहले) सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है। [तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व की भी उद्वेलना करके 26 प्रकृति स्थान का स्वामी हो जाता है।] ( कषायपाहुड़ 3/373/205/9 )।
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यहां पर सम्यकप्रकृति की सम्यक्मिथ्यात्व रूप होने का उद्वेलना काल अलग प्रकार से दिया गया है।सम्यक्मिथ्यात्व मिथ्यात्व रूप हो जाती है।तक़ब् प्रथमोपशम सम्यक्त्व होत है।
कषायपाहुड़ 2/2,22/123/105/1 एइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तविहत्ती.जह.एगसमओ, उक्क.पलिदोवमस्स असंखे.भागो।
= एकेंद्रियों में सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की विभक्ति का जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र है।
[क्योंकि यहाँ उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता नहीं है, इसलिए इस काल में वृद्धि संभव नहीं। यदि सम्यक्त्व प्राप्त करके पुन: नवीन प्रकृतियों की सत्ता कर ले तो क्रम न टूटने के कारण इस काल में वृद्धि होनी संभव है। यदि ऐसा न हो तो अवश्य इतने काल में उन प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है। जिन मार्गणाओं में इनका सत्त्व अधिक कहा है वहाँ नवीन सत्ता की अपेक्षा जानना। देखें [अंतर - 2]
(https://www.jainkosh.org/wiki/अंतर#2)।]
धवला 5/1,6,7/10/8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तीदो।=
सम्यक्त्व और सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति की स्थिति का, पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र काल के बिना सागरोपम, अथवा सागरोपम पृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/617/821 पल्लासंखेज्जदिमं ठिदिमुव्वेल्लदि मुहुत्तअंतेण। संखेज्जसायरठिदिं पल्लासंखेज्जकालेण।=
पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति की अंतर्मुहूर्त काल में उद्वेलना करता है। अतएव एक संख्यात सागरप्रमाण मनुष्यद्विकादि की सत्तारूप स्थिति की उद्वेलना त्रैराशिक विधि से पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में ही कर सकता है, ऐसा सिद्ध है।
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