ग्यारहवे और बारहवें गुणस्थान में जीव को पूर्ण सुखी की उपाधि दी है और १३वे से सिद्ध दशा तक अनंत सुख की उपाधि दी है। प्रश्न है की पूर्ण सुखी और अनंत सुखी में क्या अंतर है? क्या पूर्ण और अनंत में अंतर है? और अगर पूर्ण अनंत से कम है तो फिर पूर्ण कैसे हुआ?
थोड़ा विचार करने पर ऐसा तर्क समझ में आता है की ११वे और १२वे में दुःख का पूर्णतः अभाव है इस तरह नास्ति की अपेक्षा (दुःख के अभाव) की अपेक्षा से पूर्ण सुखी है। १३वे गुणस्थान और आगे ‘सुख’ गुण की पर्याय पूर्णतः प्रगट हो जाती है (१३वे गुणस्थान के अनंत चतुष्टय में दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य है) उस अपेक्षा से अनंत सुखी कहा गया है।
दूसरा विचार यह भी आता है की ११वे और १२वे में ज्ञान की पर्याय पूर्ण प्रगट नहीं हुई है, इसलिए यद्यपि १२वे से १३वे में सुख में कुछ अंतर नहीं है लेकिन वो सुख ज्ञान में आ जाता है, इस अपेक्षा से अनंत है?
क्या उपरोक्त तर्क सही है? अगर नहीं, तो पूर्ण और अनंत सुख में क्या अंतर है?