सच्चे गुरु की परिभाषा

गुरु - जिसमें गुरुता हो।

गुरुता - मतिकृत, शरीरकृत और आयुकृत तीन प्रकार की होती है। (प्रमेयरत्नमाला)

मतिकृत - बुद्धि/विशुद्धि/सम्यक्त्व; जैसे - अध्यापक, व्रती, मुनि
शरीरकृत - बलिष्टता या ऊँचाई या कला; जैसे - लौकिक कलात्मक या खेल-कूद में प्रधान व्यक्ति (प्रकृत में अकार्यकारी)
आयुकृत - उम्र; जैसे - बड़े भाई-बहिन आदि। (प्रकृत विषय में अकार्यकारी)

मतिकृत गुरुता में भी पूज्यता का सम्बन्ध बुद्धि की तीक्ष्णता से न होकर विशुद्धि और सम्यक्त्व दोनों से है। (मात्र विशुद्धता नहीं और मात्र सम्यक्त्व भी नहीं।)

जिनदेव प्रणीत मोक्षमार्गोपयोगी सिद्धान्त सर्वथा पूजनीय हैं। जैसे - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, धर्म, आराधना आदि।

व्यक्ति-विशेष पूजनीयता -

  1. देव - अरिहन्त-सिद्ध
  2. गुरु - देव मुद्राधारी तथा तत्-वचनानुयायी, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-युक्त, ज्ञान-ध्यान-तप में रक्त मुनि/साधु (मात्र सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी श्रावक नहीं।) [यथाजात मुद्रा = अष्टपाहुड़][रत्नकरण्ड श्रावकाचार]

गुरु की पहचान कैसे?
-जिनवचनों में पाए जाने वाले निश्चय-व्यवहार चिह्नों से
-(अन्य शब्दों में) भावलिंग से युक्त द्रव्यलिंग से।

भावलिंग की पहचान कैसे?
मुनि की विशुद्ध वीतराग भावना से। (शुद्धोपयोग = द्रव्य संग्रह)

द्रव्यलिंग की पहचान कैसे?
अष्ट-प्रवचन-मातृका, 28 मूलगुण आदि। (द्रव्यसंग्रह/पंचास्तिकाय)

व्यक्ति-विशेष की पूजनीयता का आधार क्या है?
शास्त्र - देव प्रणीत आगमिक वचन

बाकी कोई भी पूज्यनीय नहीं है।

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