निश्चय व्यवहार स्वरूप

नयचक्र के अत्यन्त प्रिय विषयों में से एक है - निश्चय-व्यवहार नय।

मेरा प्रश्न है कि निश्चय-व्यवहार की सार्वभौमिक और सर्वकालिक परिभाषा क्या है?

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श्रुतभवनदीपकनयचक्र के आधार से - नयो के सन्दर्भे में जो मुझे ज्ञात हुआ वह इसप्रकार हैं :-

नय के भेद - निश्चयनय, व्यवहारनय
निश्चयनय- अभेद और अनुपचार से एकत्व रूप वस्तु (आत्मा) को बताने वाला नय निश्चयनय हैं । जो नय आत्मा को एकत्व के निकट ले जाकर ज्ञानानंद (नयपक्षातीत दशा ) को उत्पन्न कर स्वयं निवर्त्त हो जाता हैं, वह निश्चयनय है।

व्यवहारनय - भेद और उपचार से अनेकत्व रूप वस्तु (आत्मा) को बताने वाला नय व्यवहारनय हैं ।

निश्चयनय के कोई भेद नही।

व्यवहारनय के तीन भेद - प्रमाण (पाँच भेद), नय (दो भेद - नय और उपनय ) और निक्षेप (चार भेद)

व्यवहारनय के नय रूप भेद (मूलनय) के दो भेद - द्रव्यार्थिक नय (दस भेद - जिनमे परमभावग्राही द्रव्यार्थिक नय भी व्यवहारनय के रूप में हैं ), पर्यायार्थिकनय (छह भेद)
द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद - नैगम, संग्रह, व्यवहार नय
पर्यायार्थिकनय के चार भेद - ऋजुसूत्र, शब्दनय, समभीरूढ़, एवंभूत नय

व्यवहारनय के उपनय रूप भेद के तीन उत्तर भेद - सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार, उपचरितव्यवहार

अब, व्यवहारनय उसे कहते हैं जो ऊपर बताये हुए तीन उपनयो से जनित हो, अर्थात सभी द्रव्यार्थिक नय एवं सभी पर्यायार्थिकनय की विषय वस्तु भी उपनय से जनित हैं, इसलिए व्यवहार नय में शामिल हैं। उपनय वह हैं जो प्रमाण-नय-निक्षेपरूप (भेद व उपचार) के पास आत्मा को ले जाता है।

अब, निश्चयनय उसे कहते हैं जो उपनय से जनित नहीं हो अर्थात जो एकत्वरूप (अभेद व अनुपचार) के पास आत्मा को ले जाता है।

जय जिनेन्द्र

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वाह!
अद्भुत!

संक्षेप में - अनिश्चितता का निवारक = निश्चय नय और अनिश्चितता का उत्पादक/निश्चितता का सहायक = व्यवहार।

अन्तिम प्रश्न -

निश्चय और निश्चय नय/व्यवहार और व्यवहार नय एक ही हैं या भिन्न?
राग को निश्चय नय से पुद्गल का कहना और व्यवहार नय से जीव का कहने के पीछे का राज़ भी बताएँ।

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धन्यवाद

सामान्यतः, निश्चय और व्यवहार विषयवस्तु हैं, निश्चय नय और व्यवहार नय विषयवस्तु को बताने वाला है, ऐसा ही समझा जाता हैं। लेकिन अभी यह कहना मुश्किल होगा की निश्चय और निश्चयनय भिन्न-भिन्न हैं, व्यवहार और व्यवहारनय भिन्न-भिन्न हैं। थोड़ा विचार करता हूँ इस बात पर।

राग को निश्चय नय से पुद्गल का कहना और व्यवहार नय से जीव का कहना, इसके लिए मैं अभी केवल यह कहने में सक्षम हूँ एक उदाहरण के द्वारा :-

Sansari Jeev is like a surrogate mother who is bearing the child (राग - द्वेष) of others. Though, life of the child is only depending on the life of the surrogate mother. The child is developing because of her. She is bearing all the pain for that child. She is the actual mother (पहला निश्चयनय) of that child.

If you ask a question that who is the legal parents (दूसरा निश्चयनय) of that child, then truly not the surrogate mother but the other. The surrogate mother is legally bound to give that child to his legal parents.

If the surrogate mother still considers that the child (राग - द्वेष) is her own child, then it is her mistake (i.e. मोह).

Now, the question is the same who is the mother of that child? Then, we need to differentiate the actual mother (पहला निश्चयनय) and the legal mother (दूसरा निश्चयनय).

Jai Jinendra

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Your intelligence is par excellence.

A similar example is given by Jayasenacharya at few instances while explaining this topic in Karta-karma adhikar.

मेरी समझ से निश्चय-निश्चयनय/व्यवहार-व्यवहारनय में भेदाभेद है।
भेद - निश्चय/व्यवहार तो निश्चित वस्तु-ग्राहक है और निश्चयनय/व्यवहारनय सर्व वस्तु-ग्राहक है।
अभेद - एक ही वस्तु के बारे में बात कर रहे हैं।

सभी नय-चक्रों के अनुसार : जीव के रागादि - अशुद्ध निश्चय नय का विषय है। मतलब एकदेश शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा, साक्षात शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा और परमशुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा - यह अशुद्ध निश्चय नय व्यवहार है।

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परम शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा ऊपर के सातो नयो को व्यव्हार कह सकते है।
साक्षात शुद्ध निश्चय नय को भी परम शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा व्यवहार कह सकते है क्योंकि उसने निर्मल पर्याय को विषय बनाया है।

जीव का त्रिकाली शुद्धस्वरूप बताने के लिए।अनुभव के काल मे आश्रय करने के लिए।त्रिकाली द्रव्य की मुख्यता है

जीव की वर्तमान पर्याय की अपेक्षा बताने लिए।सिद्ध और संसारी का फर्क , अशुद्ध पर्याय - निर्मल पर्याय का अंतर,

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मूलनय कितने हैं?
मूलनय के संबंध में हमे दो प्रकार से विचार करना चाहिए, १) एक वस्तु के कारण मूलनय की उत्पत्ति, और १) एक वस्तु के स्वरुप के कथन/ज्ञान के कारण मूलनय की उत्पत्ति|

१) चूँकि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक हैं, इसलिए वस्तु को जानने के लिए मूलनय के रूप में द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय कहे हैं| ये दोनों नय वस्तु के द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरुप का निरूपण करते हैं| इसलिए ऐसा कहा जा सकता हैं की द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की उत्पत्ति वस्तु के स्वरुप के कारण हुई हैं| इसीप्रकार भेद नय और अभेद नय, और अन्य नयो की उत्पत्ति वस्तु के स्वरुप के कारण हैं |

२) लेकिन, वस्तु के स्वरुप से अनभिज्ञ कोई जीव जब वस्तु के स्वरुप को जानने के लिए प्रयत्नशील होता हैं, तब उसके लिए वस्तु के स्वरुप का जानना (या कथन करना) दो तरह से संभव हो पता हैं| एक तो वस्तु के स्वरुप को उसके सच्चे रूप से जानना, और एक उसी वस्तु के स्वरुप को उसके उपचार रूप से जानना| जब सच्चे रूप से जानना संभव नहीं हो पाता हैं, तब उसके उपचार रूप से (संयोग से, भेद से) जानना होता हैं | वस्तु के स्वरुप को सच्चे रूप से निरूपण करना निश्चय नय हैं और उसी वस्तु के स्वरुप को उपचार रूप से निरूपण करना व्यवहार नय हैं | इसलिए ऐसा कहा जा सकता हैं की निश्चय नय और व्यवहार नय की उत्पत्ति वस्तु के स्वरुप के कथन/ज्ञान के कारण हुई हैं|

अतः जब वस्तु के स्वरुप की तरफ से बात करते हैं, तब मूलनय द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय हैं| और जब वस्तु के स्वरुप को कहने/जानने की तरफ से बात करते हैं, तब मूलनय निश्चय नय और व्यवहार नय हैं|
अज्ञानी ज्ञानी बनाने की लिए निश्चय नय और व्यवहार नय की कथन शैली हैं, उस कथन शैली के द्वारा द्रव्यार्थिक नय का विषय “द्रव्य” और पर्यायार्थिक नय का विषय “पर्याय” समझा जाता हैं|

निश्चय नय और व्यवहार नय सार्वभौमिक और सार्वकालिक की परिभाषा:
वस्तु का सच्चा निरूपण सो निश्चय और उपचार निरूपण सो व्यवहार| निश्चय -व्यवहार का सर्वत्र ऐसा ही लक्षण हैं | (मो.मा.प्र.- 249)
सच्चा निरूपण वस्तु के अपने आश्रित होता हैं, और उपचार निरूपण अन्य के आश्रित होता हैं इसलिए स्वाश्रित सो निश्चय और पराश्रित सो व्यवहार|
चूँकि, निश्चय नय और व्यवहार नय का प्रयोग ज्ञानी अज्ञानी को समझाने के लिए करता हैं, इसलिए ज्ञानी के अभिप्राय को नय कहते हैं, वह ज्ञानी वक्ता हैं, इसलिए वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं | ज्ञानी व्यवहार के द्वारा निश्चय का प्रतिपादन करता हैं इसलिए निश्चय-व्यवहार में प्रतिपाद्य -प्रतिपादक संबंध हैं| तत्पश्चात,अज्ञानी के ज्ञानी होने पर निश्चय के द्वारा व्यवहार का निषेध होता हैं, इसलिए निश्चय-व्यवहार में निषेधक - निषेध्य
संबंध हैं|

(मुझे जो मूलनय, नय के संबंध में स्पष्टीकरण हुआ हैं, उसे यहाँ मैंने प्रस्तुत किया हैं| )

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