नैयायिक- वैशेषिक मत में परमाणु के गुण सम्बन्धी

जैन धर्म में परमाणु के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण - ये 4 मुख्य गुण बताए है।
परन्तु नैयायिक- वैशेषिक मानते है कि - पृथ्वी के परमाणुओं में तो ये चारो गुण होते है, लेकिन जल के परमाणुओं में गंध नहीं होती, अग्नि के परमाणुओं में गंध और रस नहीं होता, और वायु के परमाणुओं में गंध, रस और वर्ण नहीं होता।

सो ठीक ही तो लग रहा है क्योंकि वायु में जो गंध आती है वह तो किसी अन्य वस्तु कि आती है, वायु कि खुद कि तो कोई गंध नहीं मालूम पड़ती, और वायु यदि एकदम स्वच्छ हो तो उसमे वर्ण भी नहीं मालूम पड़ता और वायु का रस भी नहीं।
अग्नि में रस होता है क्या ? और गंध तो लकड़ी, कपूर आदि कि होती है, अग्नि कि कहाँ ?
जल में गंदगी हो, जीव जंतु मल मूत्र आदि करें, काई जमी हो तो उसकी गंध है, स्वच्छ जल में भी कोई गंध होती है ?

यहाँ मंद बुद्धि के कारन नैयायिक- वैशेषिक मत वालों कि बात सही लग रही है, कृपया समाधान करें।

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पृथिवी जल आदि सभी में सर्वगुणों की सिद्धि

प्रवचनसार/132
वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो। पुढवीपरियत्तस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो। 132।
= वर्ण, रस, गंध और स्पर्श (गुण) सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यंत के (सर्व) पुद्गल के होते हैं, जो विविध प्रकार का शब्द है वह पुद्गल अर्थात् पौद्गलिक पर्याय है। 132।

राजवार्तिक/5/25/16/493/9
पृथिवी तावत् घटादिलक्षणा स्पर्शादि-शब्दाद्यात्मिका सिद्धा। अंभोऽपि तद्विकारत्वात् तदात्मकम्, साक्षात् गंधोपलब्धेश्च। तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां गंधः तद्गुण इवोपलभ्यत इति चेत्ः नः साध्यत्वात्। तद्वियोगकालादर्शनात् तदविनाभावाच्च तद्गुण एवेति निश्चयः कर्तव्यः-गंधव-दंभः रसवत्त्वात् आम्रफलवत्। तथा तेजोऽपि स्पर्शादिशब्दादि-स्वभावकं तद्वत्कार्यत्वात् घटवत्। स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां काय तेजः। किंच तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। पित्तं च जठराग्निः, तस्मात् स्पर्शादिमत्तेजः। तथा स्पर्शादिशब्दादिपरिणामो वायुः स्पर्शवत्त्वात् घटादिवत्। किंच, तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। वातश्च प्राणादिः, ततो वायुरपि स्पर्शादिमान् इत्यवसेयः। एतेन ‘चतुस्त्रिद्वयेकगुणाः पृथिव्यादयः पार्थिवादिजातिभिन्नाः’ इति दर्शनं प्रत्युक्तम्।

= घट, पट आदि स्पर्शादिमान् पदार्थ पृथिवी हैं। जल भी पुद्गल का विकार होने से पुद्गलात्मक है। उनमें गंध भी पायी जाती है। ‘जल में संयुक्त पार्थिव द्रव्यों की गंध आती है, जल स्वयं निर्गंध है’ यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गंध रहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्यों के संयोग से रहित ही। गंध स्पर्श का अविनाभावी है। अर्थात् पुद्गल का अविनाभावी है। अतः वह जल का गुण है। जल गंधवाला है, क्योंकि वह रसवाला है जैसे कि आम। अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है क्योंकि वह पृथिवीत्ववाली पृथ्वी का कार्य है जैसे कि घड़ा। स्पर्शादिवाली लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है यह सर्व विदित है। पुद्गल परिणाम होने से खाये गये स्पर्शादिगुणवाले आहार का वात पित्त और कफरूप से परिणाम होता है। पित्त अर्थात् जठराग्नि। अतः तेज को स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है। इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शब्दादि पर्यायवाली है, क्योंकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घट में। खाये हुए अन्न का वात पित्त श्लेष्म रूप से परिणमन होता है। वात अर्थात् वायु। अतः वायु को भी स्पर्शादिमान मानना चाहिए।

इस प्रकार नैयायिकों का यह मत खंडित हो जाता है कि पृथ्वी में चार गुण, जल में गंध रहित तीन गुण, अग्नि में गंध रस रहित दो गुण, तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है।

( राजवार्तिक/2/20/4/133/17 ); ( राजवार्तिक/5/3/3/442/6 ); ( राजवार्तिक/5/23/3/484/20 )।
प.सा./त.प्र./132
सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचंतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात्। व्यक्तस्पर्शादिचतुष्कानां च चंद्रकांतारणियवाना-मारंभकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगनधाव्यक्तगंधरसाव्यक्तगंधरसवर्णानामब्ज्योतिरुदरमरुता-मारंभदर्शनात्।
= सभी पुद्गल स्पर्शादि चतुष्क युक्त स्वीकार किये गये हैं क्योंकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त हैं ऐसे चंद्रकांत मणि को, अरणिको और जौ को पुद्गल उत्पन्न करते हैं; उन्हीं के द्वारा जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की, जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की, और जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदर वायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है।

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और सर्वार्थसिद्धि का पाँचवां अध्याय भी।

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चिन्मय जी,

आपका विचार उचित ही है। जो जो दर्शन लोक को देखकर अपने दार्शनिक विचारों का निर्णय करते हैं, उनमें और चार्वाक में अन्तर ही क्या!

लेकिन पृथ्वी आदि में पाए जाने वाले गुण का नियामक हमारा अल्प ज्ञान कैसे हो सकता है? जो जो मतिज्ञान का विषय नहीं, क्या वो वो गुण ही नहीं होता? ऐसे तो हमारे ज्ञान में ज्ञान तो आता है लेकिन श्रद्धा और चारित्र नहीं आते तो क्या वे हैं ही नहीं?

स्पर्श, रस, वर्ण से जल को समझना आसान होता है, लेकिन यदि जल के परमाणु में गन्ध नहीं होती तो जल को सूंघकर उसकी योग्यताओं का पता लगाने वाले न होते। और यदि जल में गन्ध न होती तो रेगिस्तान में उसका पता कैसे चलता?

स्पर्श और वर्ण से अग्नि को समझना आसान होता है, लेकिन यदि अग्नि में गन्ध नहीं होती तो किसी ज्वलनशील पदार्थ के साथ सम्बन्ध होने पर भी उसमें से गन्ध नहीं आ सकती। दोनों की गन्ध जब एकमेक होती है तभी गन्ध आती है। ऐसा ही गर्म भोजन का स्वाद आने पर जब अग्नि और सब्जी का स्वाद एकमेक होता है तभी एक रस होता है।

स्पर्श से वायु को समझना आसान होता है, लेकिन यदि वायु में गन्ध गुण न हो तो वो जिस भी वस्तु की गन्ध को अपने में लिए हुए है उसकी गन्ध आना भी सुदूर है। वायु का स्वाद न हो तो श्वास आने पर जो स्वाद होता है, वो उससे पहले क्यों नहीं होता, यदि वायु में रस गुण ही न हो तो वह जिसका भी स्वाद कराता है, बिना रस के वह स्वाद द्विगुणित कैसे हो जाता है। ऐसा ही वायु के वर्ण गुण के सम्बंध में जानना चाहिए।

और भी अनेक हेतु हो सकते हैं।

वैसे भी ये सभी 1 इन्द्रिय जीव हैं, इनका औदारिक शरीर है और सभी में 1 स्पर्शन इन्द्रिय ही पाई जाती है। उसके द्वारा प्रयोग में लेने वाला गुण तो स्पर्श ही है लेकिन उन्हें पहचानने हेतु पुद्गल के चारों ही गुण कार्यरत हैं। अतः उदाहरणतः वायु काय में 1 ही स्पर्श गुण के प्रयोग करने की योग्यता है, किन्तु वायु काय की पहचान चारों ही गुणों के माध्यम से हो सकती है।

इत्यम्।

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