पूजन व पाठादि के अन्त में जो पंक्तियां होती हैं उन्हें बदला जा सकता है?

पूजन की जयमाला व सोरठा छन्दों में कवि जो अपना नाम देते थे क्या उस नाम को हटा कर उसकी जगह “सेवक” या “शिवसुख” आदि शब्द जोड़ने पर विनयाचार आदि दोष लगेगा या नहीं? दृष्टांत:- द्यानतराय जी, भूधरदास जी, वृन्दावन दास जी आदि के पाठ व पूजन आदि।

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प्राचीनकाल से ही यह परम्परा रही है कि कवि अपनी विनय सम्पूर्ण रचना के अंत मे अपना नाम लिखकर भी प्रदर्शित करतें हैं।

मूलाचार में लोकानुवृत्य आदि विनय के भेद बताएं हैं, उनके भाव को लेते हुए कहा जा सकता है, कि कवियों ने अपनी विनय अमुक रचना में नाम लिखकर प्रदर्शित करी तथा हम अपनी विनय उनके नाम की जगह कुछ अन्य शब्द (जैसे- हम सब, इत्यादि) लगाकर प्रयोग करना चाहें, तो कोई दोष नही।

• भाव भी विशेष लगतें हैं।
• भावों की भी अधिकता होनी ही चाहिए।

किसी भी पक्ष का एकांत सुखकर नही है।

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विचारणीय बिन्दु:-
१. किंतु यदि यह सोच कर हम अपने मन मुताबिक शब्दों का प्रयोग करेंगे तो फिर जिसप्रकार से आ.बाबू ‘युगल’ जी की कृति देव-शास्त्र-गुरु पूजन व सिद्धपूजन के छंद में हेर-फेर हुई है कहीं वह यहां भी इसी छूट के कारण न हो जाए ?

२. उन कवियों की श्रद्धा को स्मरण करने का वह भाव जो उन्होंने अपने नाम या विशेषण से छंद में पिरोया था उसके लोप होने से छंद का अर्थ भिन्न तो भासित न हो जाएगा?

३. हम मन मुताबिक सेवत, सेवक या शिवसुख आदि शब्द जोड़ेंगे तो लिखी हुई रचना के रचनाकार धीरे-धीरे लुप्त होने का प्रसंग भी बन सकता है?

४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ में जो विनयाचारादि बताए हैं तो वह यहां लागू होंगे या नहीं या मात्र आचार्यों के द्वारा कहे हुए छंद व पाठादि में ही वह दोष लगेंगे??

कृपया समुचित समाधान करने का प्रयास करें

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ऐसा करने का कुछ विशेष कारण?

कारण विशेष कुछ नहीं है कुछ लोगों को ऐसा लगता है यह जो पद पंक्तियों में दिया गया है वह सार्थक नहीं है तो इस पद में आए द्यानत या वृन्द पद को छोड़कर अपने हिसाब से कुछ भी प्रयोग करते हैं। जो कि उचित जान नहीं पड़ता

अगर हम कवि के द्वारा लिखे हुए शब्दों को महत्वपूर्ण नहीं मानेंगे तो फिर कोई भी अपने हिसाब से कुछ भी घटा व बड़ा सकता है जो कि उचित नहीं है।
इसलिए इस शंका का उचित समाधान चाहता हूं।

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हिन्दी साहित्य में अलग अलग काल मे अलग अलग रस और लिखने के तरीके रहे है। मुगल काल मे लिखित साहित्य की बहुत हानि हुई क्योंकि वो सब जला देते थे, तो उस समय के कवि अपनी रचनाओ में ही अपना नाम लिखने लगे ताकि कवि का नाम पता चल सके, और रचना करते समय भाव भी रहते होंगे।
मेरे विचार में यह ethically गलत हो सकता है कि हम कवि का नाम हटा दे।

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जी भैया,
आपकी बात सही है, लेकिन ये तो पूजन-भक्ति का स्थान है, जहाँ भावों की भी बहुत महत्ता है, (सिर्फ भाव का पक्ष लेकर कह रहा हूँ), इसमें दोष प्रतीत नही होता।

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