आचार्यकल्प पंडित टोडरमल पद्यावली

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आचार्यकल्प पंडित टोडरमल पद्यावली

आभार : जैन अध्ययन केंद्र, झालरापाटन (राज.)

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प्रिय साधर्मीजन! जय जिनेन्द्र!।

आचार्यकल्प पंडितप्रवर टोडरमल जी के ३००वें जन्मजयंती वर्ष के प्रसंग पर आपके समक्ष उनके द्वारा रचित पद्य प्रस्तुत हैं।

ये पद्य पं. टोडरमल जी कृत विभिन्न ग्रंथों के मंगलाचरण, अंत्यमंगल, प्रशस्तियों एवं गोम्मटसार पूजा के रूप में पाए जाते हैं; परंतु खेद का विषय है कि प्रायः उन विस्तृत ग्रंथों को पढ़ने में सामान्य जन की रुचि न होने से, उच्चकोटि की काव्यकला एवं अध्यात्मर्स से भरे हुए ये अत्यंत सुंदर एवं अर्थगंभीर पद्य स्वाध्यायी जनों के दृष्टिपथ में भी प्राय: नहीं आ पाते हैं। आपको जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि पं. टोडरमल जी द्वारा लिखित उपलब्ध पद्यों की संख्या १०-२० नहीं, बल्कि २२६ है जो कि हिन्दी एवं संस्कृत - दोनों भाषाओं के १० प्रकार के छंदों में रचे गए हैं। उनमें से अनेक छदों में काव्य के अद्भुत प्रयोग एवं अध्यात्म की गहराइयाँ दोनों भलीभांति दृष्टिगत होती हैं। शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों का प्रयोग भी प्रचुरता से किया गया है।

अतः सभी साधर्मी जन पं. टोडरमल जी की काव्यकला एवं उनके आध्यात्मिक हृदय से परिचित हो सकें, इस भावना से इन सबको एक स्थान पर एकत्रित किया गया है। अलग-अलग प्रतिलिपियों में मिलने वाले पाठभेद भी अधोटिप्पण में दिये गए हैं।

इन पद्यों में कोई त्रुटि न रहे, इस हेतु जयपुर, झालशपाटन, झालावाड़, पिड़ावा आदि अनेक स्थानों पर उपलब्ध हस्तलिखित प्रतिलिपियों से अनेक बार मिलान करके यह कार्य किया गया है। मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ के पद्यों के लिए तो पं. टोडरमल जी की मूलप्रति का.ही उपयोग किया गया है। मात्र त्रिलोकसार टीका एवं गोम्मटसार पूजा की जयमाला हस्तलिखित ग्रंथों में हमें देखने को नहीं मिली, अतः उनकी प्रकाशित प्रतियों का ही उपयोग कर पाए हैं।

इस कार्य के संपादन एवं प्रूफ-संशोधन में अत्यधिक सावधानी रखी गई है। पद्मयों की भाषा ढूंढारी /ब्रज होने के कारण मात्राओं, अनुस्वार आदि का भी बहुत ध्यान रखा गया है। फिर भी यदि
आपको कोई त्रुटि दिखाई दे या कोई शंका/सुझाव हो, तो आप हमसे संपर्क कर सकते हैं।
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मोक्षमार्ग प्रकाशक

(दोहा)

मंगलमय मंगलकरण, वीतराग विज्ञान।
नमौं ताहि जातैं भए, अरहंतादि महान।।१।।

करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथ करनको काज।
जातैं मिलै समाज सब, पाबै निजपद राज॥।२॥। (पहला अधिकार मंगलाचरण)

मिथ्याभाव अभाव तैं, जो प्रगटे निजभाव।
सो जयवंत रहौ सदा, यहु ही मोक्ष उपाव।।३।। (दूसरा अधिकार मंगलाचरण)

सो जिनभाव सदा सुखद, अपनौ करो प्रकाश।
जो बहुविधि भवदुखनिको, करिहै सत्तानास।।४।। (तीसरा अधिकार मंगलाचरण)

इस भवके सब दुखनि के, कारन मिथ्याभाव।
तिनिके सत्ता नाश करि, प्रगटे मोक्ष उपाव।।५।| (चौथा अधिकार मंगलाचरण)

बहुविधि मिथ्या गहन करि, मलिन भयो निजभाव।
ताको होत अभाव है सहजरूप दरसाव।।६॥ (पाँचवाँ अधिकार मंगलाचरण)

मिथ्यादेवादिक भजें, होहै मिथ्याभाव।
तजि तिनकों सांचे भजौ, यह हित हेतु उपाव।।७।। (छठा अधिकार मंगलाचरण)

इस भवतरुको मूल इक, जानहु मिथ्याभाव।
ताकों करि निर्ममूल अब, करिए मोक्ष उपाव।।८।। (सातवाँ अधिकार मंगलाचरण)

शिवउपाय कररतैं प्रथम, कारन मंगलरूप।
विघ्नविनाशक सुखकरन, नर्मौं शुद्ध शिवभूष।।९।। (नौवाँ अधिकार मंगलाचरण)

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आत्मानुशासन भाषा टीका

(दोहा)
श्रीजिनशासन-गुरु नमौं, नानाविधि सुखकार।
आतमहित उपदेश दै :star:, कौ मंगलाचार।।१।।

(सबैया इकतीसा)

सोहै जिनशासनमें आत्मानुशासन श्रुत, जाकी दुःखहारी सुखकारी सांची शासना।
जाको गुनभद्र कर्त्ता, गुनभद्र जाकों जानिं, भद्र गुनधारी भव्य करत उपासना।
ऐसे सार शास्त्रको प्रकाशैं अर्थ, जीवनिको बनैं उपकार नाशैं मिथ्याभ्रमवोसना।
तातैं देशभाषा करि अर्थको प्रकाश करौं, जातैं मन्दबुद्धिहू के होत अर्थ भासना।। २।।

:star:तैं (पाठांतर)

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त्रिलोकसार भाषा टीका

मंगलाचरण

(दोहा)

त्रिभुवनसार अपारगुन, ज्ञायक नायक संत।
त्रिभुवनहितकारी नमौं, श्री अरहंत महंत।।१।।

तीनभवनके मुकुटमनि, गुन अनंतमय शुद्ध।
नमौं सिद्ध परमातमा, वीतराग अविरुद्ध।।२।।

तीन भुवनथिति जानिके, आप आपमय होय।
परतैं भए विरक्‍त अति, नमों महामुनि सोय।।३॥

तीनभुवन मंदिर विषैं, अर्थ प्रकासनहार।
जैनवचनदीपक नर्मौं, ज्ञानकरन गुनधार।।४।।

तीनभुवनमहिं जे लसैं, चैत्य-चैत्यग्रह सार।
ते सब वंदौं भावजुत, सुभकारन सुखकार।।५।।

ऐसे मंगलरूप सब, तिनके वंदे पांय।
अब किछु रचना कहत हों, नानाविधि सुखदाय।।६।।

(कवित्त)
तीनभुवन शशि जिनपतिकों अति भक्तिभावतैं करि नति सार,
ग्रंथ त्रिलोकसारकी टीका परकासों विधितैं सुखकार।
किचिन्मात्र ज्ञानके धारी भव्य जीव जें हैं रुचिधार,
तिनके संबोधनकों कारण ऐसा जानहु भव्यविचार।।७॥

(अडिल्ल)
अकलंकादिक सूरि भूरि गुणमंत हैं, अतुलधर्मके धारक जगि जयवंत हैं।
जिनमततैं विपरीत कुमतमत वादधर, वादिसमूह नमाए जैन उद्योतकर।।८।।

जातैं सर्व बुधनिकों विस्मयकारिणी, जाकी भई प्रवृत्ति महागुन धारिणी।
दोष रहत जिनमतसों दूरि करो सदा, सघनकुमति-तमपुंज बहुरि होइ न कदा।।९।।

प्रशस्ति

(कवित्त)
ग्रंथ त्रिलोकसारकी भाषाटीका पूरन भई प्रमान,
याके जानैं जानतु है सब नानारूप लोक संस्थान।
तातैं ध्यावै धर्मध्यानकों पावै सकल प्रकाशक ज्ञान,
पाय त्रिलोकसार गुनमहिमा अविचल पद पईए निरवान।।१।

(चौपाई)
वाचक शब्द वाच्य है अर्थ, इनिकै यहु संबंध समर्थ।
इनिका कर्ता नांही कोय, जानें इनिको ज्ञाता होय।।२।।

(सबैया इकतींसा)
पृथ्वी शब्द पृथ्वी अर्थ इनकै संबंध ऐसो, पृथ्वी शब्द जाननेतैं पृथ्वी अर्थ जानिए।
ऐसे सांचे शब्द अर सांचे अर्थ जगमांहि, तिनिकै संबंध सो स्वभाव ही तैं मानिए।
तातैं इस ग्रंथमांहि जेते शब्द जेते अर्थ, तिनको नवीन कर्ता कोऊ नांहि मानिए।
तिनकों जो जाने अर भाषै जोरि शब्दनिकों, व्यवहारमात्र सो तो कर्ता पहिचानिए।।३।।

ऐसी परिपाटी माहिं इहां वर्धभान जिन भए तिनिहने तिनिको स्वरूप जान्यौ है।
इच्छा बिन दिव्यध्वनि तिनकै प्रगट भयी, ताकरि स्वरूप किछू तैसो ही बखान्यौ है।
गोतम गणेश सुनि ऐसो उपकार कीनौ, ताको अनुसार सब ग्रंथनिमें आन्यौ है।
तिनिकरि ज्ञानवंत होइ छोटे ग्रंथ जोरि, किनिहनैं नानाभांति अर्थ परमान्यौ है।।४।।

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पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषा टीका

(दोहा)

परम पुरुष निज अर्थकों, साधि भए गुणवृन्द।
आनन्दामृतचन्द कों, वन्दत ह्वै सुखकन्द।।१॥

वानी विनु वैन न बने, बैन विना विन नैन।
नैन विना ना वान बने, नर्वों वानि विन बैन।।२।।

गुरु उर भाव आप-पर, तारक वारक पाप।
सुर गुरु गावै आप-पर, हारक वाच कलाप।।३।।

जैनवैन गुन जानि जिन :star:, ज्ञान-ध्यान धन लीन।
मैन मान बिन दान घन, एन हीन तने छीन।।४॥।

(सवैया इकतीसा)
केऊ नै :eight_pointed_black_star: निहचै करि आतमकों शुद्ध मानि, भए हैं स्वच्छंद न पिछाने निज शुद्धता।
केऊ व्यवहार दान-शील-तपभाव ही कीं आतमको हित जानि छाँडत न मुद्धता।
केऊ व्यवहारनय-निहचैके मारगकों भिन्न-भिन्न जानि पहचानि करै उद्धता।
जब जाने निहचैके भेद व्यवहार सब, कारनकों उपचार माने तब बुद्धता।।५।। :point_left:t3:

(दोहा)
श्रीगुरु परमदयाल है, दयो सत्य उपदेश।
ज्ञानी मानै जानिकै, ठानै मूढ़ कलेश।।६।।

:star:मैं नमों नगन जैन जन (प्रकाशित प्रति में पाठांतर)
:eight_pointed_black_star:तय / पाठांतर - नर

:point_left:t3:अनेक पाण्डुलिपियों में यह छंद तीसरे क्रम पर लिखा मिलता है, जो कि उचित प्रतीत होता है क्योंकि दूसरे छंद में नयों का वर्णन है।

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