समयसार में आया है की (गाथा १४२ तो १४४) की नयों से पक्षातिक्रांत होकर समयगदृष्टि हुआ जाता है। अर्थात् निर्विकल्प दशा, आत्मानुभूति के समय नय लागू नहीं होते है।
इसलिए अरिहंत और सिद्ध भगवान के नय नहीं है। समयगदृष्टि के भी निर्विकल्प दशा में नय लागू नहीं होते, सविकल्प दशा में होते है।
प्रश्न है कि ११वे और १२वे गुणस्थान में जब जीव पूर्णतः चारित्र प्रगट हो जाता है उस समय भी जीव नय से परे हो जाता है?
दूसरा प्रश्न है की ७वे से १०वे तक जब अबुद्धिपूर्वक राग रहता है, उस समय नय लागू पड़ते है?
इसका मतलब पूर्ण श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र का भाव जब तक नहीं है तब तक व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य है।
तो इस वाक्य से ये अर्थ निकलता है की ११वे और १२वे के नय लागू होते है क्यूँकि पूर्ण ज्ञान नहीं है? लेकिन अगर उनका उपयोग बाहर है ही नहीं (अंदर ही है, पूर्ण चारित्र, अबुद्धिपूर्वक राग भी है) तो नय कैसे लगा?
छद्मस्थ होंने से, उपदेश के पात्र होने से (गोम्मटसार में ज्ञानावरण आदि 3 कर्मों को भी उपचार से भाव-कर्म कहा है, तो उसका कार्य भी है ही)
शुद्धोपयोग का विषय परमशुद्ध निश्चय नय का विषयभूत पदार्थ ही तो है।
और फिर हम तो केवली भगवान में भी नय लगा ही लेते हैं।
साथ। ही नय किस पर लागू होते हैं और नयों का प्रयोग कौन करता है - ये भिन्न भिन्न विषय हैं।
शुद्धोपयोग के काल में नय-प्रमाण आदि तो हैं नहीं, लेकिन श्रेणी में होने वाली निर्विकल्पता का औपचारिक कारण छठे गु. में हुए विकल्पात्मक निर्णय का फल है जो कि नयों के माध्यम से हुआ था।