आयु कर्म का अनुभाग

जब भी आयु कर्म की बात आती है , तो उसकी स्थिति की ही चर्चा होती है। आयु के अनुभाग को कैसा समझा जाए?
समान स्थिति वाले जीव के अनुभाग में अंतर कैसे पड़ता है?
और एक जीव के भी भिन्न समय की अपेक्षा आयु की अनुभाग शक्ति में अंतर कैसे पड़ता है?

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आयु कर्म के अनुभाग को निम्न रूपों में समझा जा सकता है -
१- कर्मो का घातिया और अघातिया रूप भेद भी अनुभाग अपेक्षा ही है। आयु कर्म अघातिया रूप है।
२- कर्मो में अनेक बदलाव रूप अवस्थाएं होती है - उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, संक्रमण आदि। आयु कर्म में भी संक्रमण को छोड़कर अन्य अवस्थाएं संभवित हैं। परन्तु सभी आयुओं में ये बदलाव नहीं होते हैं। यह अंतर भी उनके अनुभाग के कारण ही है।
३- कर्म बंधन के नियमों में एक बात आती है कि उत्कृष्ट स्थिति का बंध उत्कृष्ट अनुभाग के साथ ही होता है।
४- आयु में भी शुभ और अशुभ का भेद है - तीन आयु शुभ और नरक आयु अशुभ कहीं गई है।

  • आयु के अनुभाग को कैसा समझा जाए?
    उक्त सभी बिंदुओं से कुछ भाव भासित होता है। अधिक जानकारी हमें करनानुयोग के ग्रंथो का विशेष अभ्यास से प्राप्त होगी।

  • समान स्थिति वाले जीव के अनुभाग में अंतर कैसे पड़ता है?
    Point क्रमांक १, २ और ४

  • और एक जीव के भी भिन्न समय की अपेक्षा आयु की अनुभाग शक्ति में अंतर कैसे पड़ता है?
    इसका अभी कुछ उत्तर ख्याल नहीं आ रहा है। (अन्य साधर्मी इसपर प्रकाश डालें।)

Jainkosh से प्राप्त कुछ और बिंदु -
लिंक -अनुभाग

तिर्यंचायु से मनुष्यायु का अनुभाग अनन्तगुणा है।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,162/431/12 सहावदो चेव तिरिक्खाउआणुभागादो मणुसाउअभावस्स अणंतगुणत्ता।
= स्वभाव से ही तिर्यंचायु के अनुभाग से मनुष्यायु का भाव अनन्तगुणा है।

जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग के बन्ध कों सम्बन्धी नियम
1.अघातिया कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टि को ही बन्धता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं।
धवला पुस्तक 12/4,2,13/250/456/4 ण च मिच्छाइट्ठीसु अघादिकम्माणमुक्कस्सभावो अत्थि सम्माइट्ठीसु णियमिदउक्कस्साणुभागस्स मिच्छइट्ठीसु संभवविरोहादो।
= मिथ्यादृष्टि जीवों में अघातिकर्मों का उत्कृष्ट भाव संभव नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवों में नियम से पाये जानेवाले अघाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग के मिथ्यादृष्टि जीवों में होने का विरोध है।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,256/459/2 असंजदसम्मादिट्ठिणा मिच्छादिट्ठिणा वा बद्धस्स देवाउअं पेक्खिदूण अप्पसत्थस्स उक्कस्सत्तविरोहादो। तेण अणंतगुणहीणा।
= सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के द्वारा बान्धी गयी मनुष्यायु चूँकि देवायु की अपेक्षा अप्रशस्त है, अतएव उसके उत्कृष्ट होने का विरोध है। इसी कारण वह अनन्तगुणी हीन है।
2.गोत्रकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध तेज व वातकायिकों में ही सम्भव है।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,204/441/8 बादरतेउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहण्णाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो। जदि अण्णत्थ उप्पज्जदि तो णियमा अणंतगुणवड्ढीए वड्ढिदं चेव उप्पज्जदि ण अण्णहा।
= बादरतेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभाग के साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं। यदि वह अन्य जीवों में उत्पन्न होता है तो नियम से वह अनन्तगुण वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकार से नहीं।

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यहाँ पर १ प्रश्न है। क्या अरिहंत भगवान के नए अघाती कर्म बांधते है? या फिर उनके पुराने अघाती कर्म ही उदय में आते रहते है जब तक उनका गुणस्थान नहीं बदल जाता?

मेरा ख़याल यह है की क्यूँकि उनके योग अभी भी है, उस निमित्त से नए अघाती कर्म भी बांधते है?

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कर्मों की बंधन रूप अवस्था कषाय के कारण होती है, वह कषाय १०वे गुणस्थान तक ही होती है। अतः अरिहंत भगवान के किसी भी कर्म का बंधन नहीं होता, मात्र अघाति कर्मों का उदय ही रहता है।
योग से कर्मों का मात्र आना ही होता है, परन्तु वह बंधन को प्राप्त नहीं होता है - कर्मों की उसी एक समय की स्थिति मात्र के आने जाने का नाम इर्यापथ-आस्रव है।

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