कर्म का और बाहरी पदार्थ का सहयोग

कर्म तो दिखाई देते नही सूक्ष्म है, जो पुदगल है | इसके उदय से या निर्जरा होने से बाहर की प्रतिकूलताएँ ओर अनुकूलताएँ कैसे होती है ? पुदगल ही पुदगल को परिणमित करता है?
इस के कारण बाहर की अवस्थाएँ कैसे बदल जाती है?

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प्रस्तुत प्रश्न के समाधान हेतु मोक्षमार्ग प्रकाशक का दूसरा अधिकार मूल से पठनीय है ।

http://ptst.in/snatak/admin/download/files_suchipatra/10.Moksh%20Marg%20Prakashak.pdf

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निमित्त-नैमित्तिक संबंध कर्मो का ओर बहरी द्रव का होता है क्या ? इस परिछेद का येही अर्थ समजू ?

देखिये,
आप इस प्रकरण का ये अर्थ समझें कि -
निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बहुत प्रकार का हो सकता है, निकट से निकट और दूर से दूर।

एक निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध यह भी है कि बादलों की रचना आसमान में बिखर गई और वैराग्य हो गया ।
और
एक निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध यह भी है कि जीव ने परिणाम किये और कर्मबन्ध हुआ तथा कर्म का उदय आया और जीव के परिणाम बिगड़े ।

इसी का अर्थ है अवस्थाएँ बदलना ।

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