मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मन, संज्ञी/असंज्ञी इत्यादि

कुछ प्रश्न है:

  • स्वप्न में आने वाला ज्ञान श्रुत ज्ञान होता है? अगर हाँ, तो श्रुत ज्ञान मन-रहित जीवों को भी होता है?
  • अगर हाँ, तो फिर मन का निमित्त किस प्रकार से होता है? ऐसा कहते है की सामान्य ज्ञान का विचार मन के निमित्त से होता है। वह “विचार” किस प्रकार का होता है? स्वप्न में भी हम मन-सहित और मन-रहित ज्ञान कह सकते है?
  • असंज्ञी पंचेन्द्रियों को श्रुत ज्ञान होता है?
  • मतिज्ञान भी मन द्वारा हो सकता है या केवल श्रुत ज्ञान ही मन द्वारा होता है?

सामान्यतः मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान का यद्यपि शास्त्रीय परिभाषा ज्ञात है लेकिन समझ में अभी भी कमी है। कहीं पर उदाहरणों सहित परिभाषाएं उपलब्ध है?

जय जिनेन्द्र !

जी नही , वह मतिज्ञान के अंतर्गत आतें हैं।

मन रहित जीवों को श्रुतज्ञान नही हो सकता।

श्रुतज्ञान में ही मन निमित्त है। मतिज्ञान मन बिना, अवधि-मनःपर्यय, केवलज्ञान के आत्मा से होतें हैं।

मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये विषय स्वयं में भी जटिल है, तथापि इसका कुछ idea आपको मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ में द्वितीय अधिकार में ज्ञानावरण कर्मोदय जन्य अवस्था के प्रकरण में समझने को मिल सकता है।

http://ptst.in/snatak/admin/download/files_suchipatra/10.Moksh%20Marg%20Prakashak.pdf

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बहुत बहुत धन्यवाद!

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कोनसा ज्ञान श्रुत और कोनसा मति यह छड्मस्त जीवो को जानना कठिन है,लेकिन फिर भी हम उपचार से किसी ज्ञान को मति और श्रुत कहते हे.इसका पक्का निर्णय तो केवली ही कर सकते है I

यह मति ज्ञान है lलेकिन इसमें इन्द्रिय नहीं परन्तु मन के निमित्त से ही होता है

जी हाँ श्रुत ज्ञान एक इन्द्रियसे पंचेंद्रिय सभी जीवो को होता है,

५. मन के अभाव में श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे

ध.१/१,१,३५/२६१/१ अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुर्भ्य: संप्रवर्तमानं रूपज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोष: भिन्नजातित्वात् । = प्रश्न - पदार्थ, प्रकाश, मन और चक्षु इनसे उत्पन्न होने वाला रूप ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है, परन्तु अमनस्क जीवों में उस रूपज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि समनस्क जीवों के रूप ज्ञान से अमनस्क जीवों का रूप ज्ञान भिन्न जातीय है।

ध.१/१,१,७३/३१४/१ मनस: कार्यत्वेन प्रतिपन्नविज्ञानेन सह तत्रतनविज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषान्मनोनिबन्धनत्वमनुमीयत इति चेन्न, भिन्नजातिस्थितविज्ञानेन सहाविशेषानुपपत्ते:। = प्रश्न - मनुष्यों में मन के कार्ययप से स्वीकार किये गये विज्ञान के साथ विकलेन्द्रियों में होने वाले विज्ञान की ज्ञान सामान्य की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेन्द्रियों का विज्ञान भी मन से उत्पन्न होता होगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञान के साथ भिन्न जाति में स्थित विज्ञान की समानता नहीं बनती।

ध.१/१,१,११६/३६१/८ अमनसां तदपि कथमिति चेन्न, मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपलम्भतोऽनेकान्तात् । = प्रश्न - मन रहित जीवों में श्रुतज्ञान कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकान्त दोष आता है।

४**. एकेन्द्रियादिक में मन के अभाव सम्बन्धी शंका समाधान**

रा.वा./५/१९/३०-३१/४७२/२६ यदि मनोऽन्तरेण इन्द्रियाणां वेदनावगमो न स्यात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च वेदनावगमो न स्यात् ।३०। …पृथगुपकारानुपलम्भात् तदभाव इति चेत्; न; गुणदोषविचारादिदर्शनात् ।३१।…अतोऽस्त्यन्त:करणं मन:। =यदि मन के बिना इन्द्रियों में स्वयं सुख-दु:खानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को दु:ख का अनुभव नहीं होना चाहिए। प्रश्न - मन का (इन्द्रियों से) पृथक् उपकार का अभाव होने से मन का भी अभाव है ? उत्तर - नहीं, गुण-दोष विचार आदि मन के स्वतन्त्र कार्य हैं इसलिए मन का स्वतन्त्र अस्तित्व है।

ध.१/१,७३/३१४/४ विकलेन्द्रियेषु मनसोऽभाव: कुतोऽवसीयत ति चेदार्षात् । कथमार्षस्य प्रामाण्यमिति चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव। = प्रश्न - विकलेन्द्रियों में मन का अभाव है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? उत्तर - आगम प्रमाण से जाना जाता है। और आगम प्रत्यक्ष की भाँति स्वभाव से प्रमाण है।

पं.का./ता.वृ./११७/१८०/१६ क्षयोपशमविकल्परूपं हि मनो भण्यते तत्तेषामप्यस्तीति कथमसंज्ञिन:। परिहारमाह। यथा पिपीलिकाया गन्धविषये जातिस्वभावेनैवाहारादिसंज्ञारूपं पटुत्वमस्ति न चान्यत्र कार्यकारणव्याप्तिज्ञानविषये अन्येषामप्यसंज्ञिनां तथैव। = प्रश्न - क्षयोपशम के विकल्परूप मन होता है। वह एकेन्द्रियादि के भी होता है, फिर वे असंज्ञी कैसे हैं। उत्तर - इसका परिहार करते हैं। जिस प्रकार चींटी आदि गन्ध के विषय में जाति स्वभाव से ही आहारादि रूप संज्ञा में चतुर होती है, परन्तु अन्यत्र कारणकार्य व्याप्तिरूप ज्ञान के विषय में चतुर नहीं होती, इसी प्रकार अन्य भी असंज्ञी जीवों के जानना।

६. श्रोत्र के अभाव में श्रुतज्ञान कैसे

ध.१/१,१,११६/३६१/६ कथमेकेन्द्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत्कथं च न भवति। श्रोत्राभावान्न शब्दावगतिस्तदभावान्न शब्दार्थावगन इति; नैष दोष:, यतो नायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति। अपि तु अशब्दरूपादपि लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानमपि श्रुतमिति। = प्रश्न - एकेन्द्रियों के श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है ? उत्तर - कैसे नहीं हो सकता है। प्रश्न - एकेन्द्रियों के श्रोत्र इन्द्रिय का अभाव होने से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता, शब्दज्ञान के अभाव में शब्द के विषयभूत अर्थ का भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता यह बात सिद्ध है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह एकान्त नियम नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को ही श्रुत कहते हैं। किन्तु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग से भी जो लिंगी का ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं।

ध.१३/५,५,२१/२१०/९ एइंदिएसु सोद-णोइंदियवज्जिएसु कधं सुदणाणुप्पत्ती। ण, तत्थ मणेण विणा वि जादिविसेसेण लिंगिविसयाणाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। = प्रश्न - एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और नोइन्द्रिय से रहित होते हैं, उनके श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर - नहीं, क्योंकि वहाँ मन के बिना भी जाति विशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध नहीं आता।

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तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि
१.श्रुतज्ञान को मन के आधार की आवश्यकता नही ?
तथा
२.जो कार्य मन से होते देखे जाते हैं, वे कार्य बिना मन के श्रुतज्ञानी जीवों के हो सकतें हैं?
तथा
३.श्रुतज्ञान में जो विचार की बात आती है, वो तो मन के निमित्त से ही होगी तो असंज्ञीयों को श्रुतज्ञान कैसे माने?
:pray:

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इसमें हमे क्षयोपशम के विकल्परूप मन जो की असंज्ञी और संज्ञी दोनों में पायाजाता है और संज्ञी वाला मन दोनों को लेना है l

पं.सं./प्रा./१/१७३ सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मणोवलंबेण। जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीओ असण्णी य।१७३। =जो जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है उसे संज्ञी कहते हैं, जो इनसे विपरीत है उसको असंज्ञी कहते हैं।

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धन्यवाद :pray: