(छन्द- दोहा)
इच्छा वांछा से रहित, हैं निशल्य जिन राज।
जान स्वरूप निदान का, हों निरीह हम आज।।1।।
(छन्द- सवैया इकतीसा)
आस कूप बहु बड़ो जग अणु सम दीखे,
आज को न देख धुन कल की लगाय है।
स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्द जाल में उलझ,
इन विष भोग ही में चित को भ्रमाय है।।
संयोग की चाह पग-कांटे सी चुभत जात,
रात-दिन कषाय में टक-टकी लगाय है।
प्रतिपल होत हानि काहे ऐसे भाव करें,
छोड़ अब जिन ने मचाई हाय हाय है।।2।।
चिंता रत रहे मन, सुदृग में दोष लगे,
ये आरत-ध्यान कर सुख ही गवाय है।
बहुत निवेश कर कम लाभ होत देख
जो लगाय चित, बनिया न कहलाय है।।
जो हुआ सो हुआ अब जान क्रमबद्ध सब,
सहज स्वभाव चित नाहिं अकुलाय है।
ये निदान शल्य भोग छोड़के स्वाधीन बन,
हो निरीह आतम में सुख उछलाय है।।3।।
(छन्द- दोहा)
महिमा आत्मस्वभाव की, जाग्रत हो उर आज।
सर्व जीव इस जगत के, पाएं समकित राज।।4।।
मंगलार्थी समकित जैन
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Bhot Sundar tarike se explain Kiya hai samkit ji aapne
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इसके आगे कुछ छन्द और लिखे गए हैं।।
(कवित्त मनहर)
आशा तो है दुख दानी, इच्छा करे बहु हानी,
मोह में लिपट-कर जीव क्लेश पाय है।
शान्त नहीं चित्त होवे, चिंता के भरम रोवे,
ढेरन को पुण्य खोवे, माथा चकराय है।
भोग रोग के समान काहे न ये बात जाने,
जे निदान भलो जान, घाटो ही कराय है।
ये भी चाहा, वो भी चाहा-कछु मिल पायो नाह,
स्व-पर सताये नर जीवन गवाय है।।
कोई जन तन माँगे, कोई जन धन माँगे,
सब के जीवन में मची-ये हाय-हाय है।
पुण्य से मिलत भोग, पाप से भये वियोग,
कल-कल की चाह में आज को गमाय है।
प्रतिपल मारे चाँटा, जैसे- पेर देत कांटा,
फिर भी उलझ तामें काहे घबराय है।
हल कछु होत नाहिं, सोच! जब अंत आहिं,
बस तन पे दो गज कफ़न सजाय है।।
भोग रोग सम जान, कष्ट पीर की खदान।
फिर सुख हेतु काहे देत तू बुहार है?
माँगन से नाहिं मिलै, मन मरजी न चलै,
मन को बने यदि, सो नैक-सी फुहार है।
अब नहीं सह्यो जात, भव दुख झंझावात,
बस एक चाह सांचे सुख की गुहार है।
साँचो सुख पायो जिन, नम कर-दोउ तिन,
भये जो निरीह ‘समकित’ की जुहार है।।
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