काफी मंदिरों में खड़गासन मूर्तियां स्थापित की जाती है। अगर इनमें प्रचलित उदहारण लें, तो श्रवणबेलगोला में बाहुबली भगवान, गोम्मटगिरि में बाहुबली भगवान, बड़वानी में आदिनाथ भगवान आदि। टोडरमल स्मारक में भी खड़गासन मूर्तियां स्थापित है।
प्रश्न १: क्या कोई भी मुनि खड्गासन मुद्रा में अरिहंत/केवली हो सकते है? या केवल पद्मासन मुद्रा में? ऐसा कोई नियम है? या किसी शास्त्र में उल्लेख है?
मूल प्रश्न: ऋषभ देव जी की खड्गासन और पद्मासन मूर्तियां दोनों पायी जाती है। इससे इतना तो तय है की एक न एक आसन में ऋषभ देव अरिहंत दशा को प्राप्त नहीं हुए थे। तो फिर हम दूसरी मूर्ति को साक्षात अरिहंत का निक्षेप (स्थापना निक्षेप) मान सकते है क्या? बाहुबली स्वामी की खड्गासन मूर्तियां भी अगर लें, तो वें उनके मुनि स्वरुप को दर्शाती है (चूँकि उनमें बेल उनके शरीर से लिपटे हुए दिखते है), अरिहंत दशा को नहीं। तो प्रश्न यह है की ऐसी मूर्तियों को अरिहंत निक्षेप के रूप में वंदन कर सकते है? मुनि निक्षेप के रूप में तो ये मूर्तियां अवश्य वंदनीय है, इसमें कोई शक नहीं। क्या ये अरिहंत निक्षेप भी कहला सकती है?
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No doubt…
आसन कि यदि हम बात करें तो वर्तमान चौबीसी में से 21 तीर्थंकर खड्गासन से मोक्ष गये हैं । तो ऐसा कोई संशय नही रखना कि एक ही आसन fix किया हुआ है ।
That is khadgasan…
जी, इसका पूजने से कोई सम्बन्ध नही होता । यह तो अपनी इच्छा है कि हम किस आसन में जिनबिम्ब को विराजमान करना चाहतें हैं ।
बहुत सुंदर प्रश्न ।
● सही कहा आपने , ( श्रवणबेलगोला ) यह तो मुनि अवस्था को दर्शाने वाली प्रतिमा ही है । इसमे मेरा मानना है कि यदि हम अरिहंत अवस्था के रूप में उस प्रतिमा का पूजन करतें हैं , तो कहीं न कहीं हम जिनेन्द्र देव के वास्तविक स्वरूप का अवर्णवाद ही कर रहे है ।
तथापि उसके पूजने का निषेध करने का साहस नही होता , क्योंकि वह अवस्था भगवान बाहुबली के अद्भुत तप को दर्शाने वाली है , और यह भी संदेश उससे प्राप्त होता है , कि यू ही अरिहंत अवस्था / अनंत सुख प्राप्त नही होता , तो इस दृष्टि से पूजना योग्य भी माना जा सकता है ।
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बिल्कुल सही कहा आपने। यह प्रतिमाएं भगवान बाहुबली के अद्भुद तप को दर्शाती है। भगवान् पार्श्वनाथ (ऊपर सर्प हैं) की मूर्तियों के सम्बन्ध में भी यह तर्क सही है?
इसी कारण इसका समर्थन भी नही किया जा सकता , लेकिन सर्प की मूर्ति के प्रचलन भी बहुत अधिक है । इसका उपाय तो बस सच्चे तत्त्व - स्वरूप की प्रतीति ही है ।
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अरिहंत अवस्था के पहले तो कोई भी आसन हो सकता है। उपसर्ग केवली होने वालों के आसन का तो कुछ भी नियम नहीं बनाया जा सकता है। (इसका विचार इस बात से कीजिए कि उपसर्ग अवस्था के कारण ढाई द्वीप के प्रत्येक प्रदेश से जीवों को मोक्ष की प्राप्ति हुई है(आकाश, समुद्र और धरती सभी जगह से)।
हां, अरिहंत अवस्था के पश्चात सिद्ध अवस्था होने से पहले दो ही आसन बताए गए हैं - पद्मासन और खड्गासन।
२४ तीर्थंकरों के भी मोक्ष के पहले का ही आसन बताया गया है।
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