श्वेताम्बर ग्रंथ निशीधसूत्र की प्रस्तावना से प्राप्त अंश -
पण्डित जी साहब [सुमत प्रकाश जी] की प्रेरणा से इसे आज पढ़ा और प्रकरण से सम्बंधित अंश प्राप्त होने पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
साधना के दो मार्ग : उत्सर्ग और अपवाद
जैन साधना रूपी सरिता के दो तट हैं- एक ‘उत्सर्ग’ है और दूसरा ‘अपवाद’ उत्सर्ग शब्द का अर्थ ‘मुख्य’ और अपवाद शब्द का अर्थ ‘गौण’ है। उत्सर्ग मार्ग का अर्थ है आन्तरिक जीवन, चारित्र और सद्गुणों की रक्षा, वृद्धि और अभिवृद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान और अपवाद का अर्थ है आन्तरिक जीवन आदि की रक्षा हेतु उसकी शुद्धि वृद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान।
उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है और वह है साधक को उपासना के पथ पर आगे बढ़ाना। सामान्य साधक के मानस में यह विचार उद्भूत हो सकते हैं कि जब उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों का लक्ष्य एक है तो फिर दो रूप क्यों हैं?
उत्तर में निवेदन है कि जैन संस्कृति के मर्मज्ञ महान मनीषियों ने मानव की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता को लक्ष्य में रखकर तथा संघ के समुत्कर्ष को ध्यान में रखकर उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण किया है। निशीथभाष्यकार ने लिखा है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध गया है, असमर्थ साधक के लिए अपवाद की परिस्थिति में विशेष कारण से वह वस्तु ग्राह्य भी हो जाती है।
उत्सर्ग और अपवाद, विरोधी नहीं
आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है कि जो बातें उत्सर्ग मार्ग में निषिद्ध की गई हैं वे सभी बाते कारण सन्मुख होने पर कल्पनीय व ग्राह्य हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है, वे एक-दूसरे के पूरक हैं। साधक दोनों के सुमेल से ही साधना पथ पर सम्यक् प्रकार से बढ़ सकता है। यदि उत्सर्ग और अपवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी हों तो वे उत्सर्ग और अपवाद नहीं हैं किन्त स्वच्छन्दता का पोषण करने वाले हैं। आगम साहित्य में दोनों को मार्ग कहा है। एक मार्ग राजमार्ग की तरह सीधा है तो दूसरा जरा घुमावदार है।
सामान्य विधि : उत्सर्ग
उत्सर्ग मार्ग पर चलना यह साधक के जीवन की सामान्य पद्धति है। एक व्यक्ति राजमार्ग पर चल रहा है, किन्तु राजमार्ग पर प्रतिरोध-विशेष उत्पन्न होने पर वह राजमार्ग को छोड़कर सन्निकट की पगडण्डी को ग्रहण करता है। कुछ दूर चलने पर जब अनुकूलता होती है तो पुन: राजमार्ग पर लौट आता है। यही स्थिति साधक की उत्सर्ग मार्ग से अपवाद मार्ग को ग्रहण करने के सम्बन्ध में है और पुनः यही विधि अपवाद से उत्सर्ग में आने की है। उत्सर्ग मार्ग सामान्य विधि है। इस विधि पर वह निरन्तर चलता है। बिना विशेष परिस्थिति के उत्सर्ग मार्ग नहीं छोड़ना चाहिये। जो साधक बिना कारण ही उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर अपवाद मार्ग को अपनाता है वह साधन नहीं, अपितु विराधक है। पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति यदि औषधि ग्रहण करता है या रोग मिट जाने पर भी बीमारी का अभिनय कर औषधि आदि ग्रहण करता है तो वह अपने कर्तव्य से च्युत होता है। विशेष कारण के अभाव में अपवाद का सेवन नहीं करना चाहिए। साथ ही जिस कारण से अपवाद का सेवन किया है, उस कारण के समाप्त होते ही उसे पुनः उत्सर्ग मार्ग को अपनाना चाहिए।
विशिष्ट विधि : अपवाद
अपवाद एक विशिष्ट मार्ग है। उत्सर्ग के समान ही वह संयम साधना का ही मार्ग है। पर अपवाद वास्तविक अपवाद होना चाहिए। यदि अपवाद के पीछे इन्द्रियपोषण की भावना है तो वह अपवाद मार्ग नहीं है। अत: साधक को अपवाद मार्ग में सतत जागरूक रहने की आवश्यकता है। जितना अति आवश्यक हो, उतना ही अपवाद को सेवन किया जा सकता है, निरन्तर नहीं। अपवाद मार्ग पर तो किसी विशेष स्थिति-परिस्थिति में ही चला जाता है। अपवाद का मार्ग चमचमाती हुई तलवार की तीक्ष्ण धार के सदृश है। उस पर प्रत्येक साधक नहीं चल सकता।
आचार्य संघदासगणि ने सुन्दर रूपक के द्वारा उत्सर्ग और अपवाद मार्ग को बताया है। एक यात्री अपने लक्ष्य की ओर द्रुत गति से चल रहा है। वह कभी तेजी से कदम बढ़ाता है तो कभी जल्दी पहुँचने के लिए वह दौड़ता भी है। पर जब वह बहुत ही थक जाता है और आगे उसे विषम मार्ग दिखाई देता है, तब विश्रान्ति के लिए कुछ क्षणों तक बैठता है, क्योंकि बिना विश्राम किये एक कदम भी चलना उसके लिए कठिन है। लेकिन उस यात्री का विश्राम आगे बढ़ने के लिए है। उसकी विश्रान्ति, विश्रान्ति के लिए नहीं; अपितु प्रगति के लिए है।
साधक भी उसी तरह उत्सर्ग मार्ग पर चलता है; किन्तु कारणवशात् उसे अपवाद मार्ग का अवलम्बन लेना पड़ता है। वह अपवाद उत्सर्ग की रक्षा के लिए ही है, उसके ध्वंस के लिए नहीं है। कल्पना कीजिए शरीर में एक भयंकर जहरीला फोड़ा हो चुका है। शरीर की रक्षा के लिए उस फोड़े की शल्यचिकित्सा की जाती है। शरीर का जो छेदन-भेदन होता है, वह शरीर के विनाश के लिए नहीं, अपितु शरीर की रक्षा के लिए है।
यदि साधक पूर्ण समर्थ है और विशिष्ट स्थिति उत्पन्न होने पर वह सहर्ष भाव से मृत्यु का वरण कर सकता हो तो वह समाधि पूर्वक वर्णन करें। यदि मृत्यु को वरण करने में समाधिभाव भंग होता है तो वह को बचाने हेतु संयम की रक्षा के लिए प्रयत्न करें। ओध निर्युक्ति की टीका में आचार्य द्रोण ने लिखा है-अपवाद सेवन करने वाले साधक के परि पूर्ण विशुद्ध हैं और पूर्ण विशुद्ध परिणाम मोक्ष का कारण है, संसार का नहीं। साधक का शरीर संयम के लिए है। यदि शरीर ही नहीं रहा तो वह संयम की आराधना किस प्रकार कर सकेगा? संयम की साधना के शरीर का पालन आवश्यक है। साधक का लक्ष्य न जीवित रहना है और न मरना है। न वह जीवित रहने की इच्छा करता है और न मरने की इच्छा करता है। वह जीवित इसलिए रहना चाहता है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि हो सके। जिस कार्य से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सिद्धि और वृद्धि हो, संयम-साधना में निर्मलता आये उस कार्य को वह करना पसन्द करता है। जब देखता है कि शरीर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि में बाधक बन रहा है तो वह सस्नेह मरण को स्वीकार कर लेता है।
स्वस्थान और परस्थान
एक शिष्य ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन्! बताइए, साधक के लिए उत्सर्ग स्वस्थान है या अपवाद? समाधान प्रदान किया गया कि जिस साधक का शरीर पूर्ण स्वस्थ है और समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग मार्ग ही स्वस्थ है और अपवाद परस्थान है। पर जिसका शरीर रुग्ण है, असमर्थ है, उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। साधक में जहाँ संयम का जोश होता है वहाँ उसमें विवेक का होश भी होता है। अपवाद मार्ग का निरूपण सिर्फ स्थविर कल्पी की दृष्टि से किया गया है। जिनकल्पी श्रमण तो केवल उत्सर्ग मार्ग पर ही चलते हैं।
अतिचार और अपवाद
एक बात यहाँ समझनी चाहिए कि अतिचार और अपवाद में अन्तर है। यद्यपि अतिचार और अपवाद में बाह्य दृष्टि से दोष सेवन एक सदृश प्रतीत होता है, पर अतिचार व अपवाद में बहुत अन्तर है। अतिचार में मोह का उदय होता है और मोह के उदय से या वासना के उत्प्रेरित होकर तथा कषाय भाव के कारण उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर जो संयमविरुद्ध प्रवृत्ति की जाती है वह अतिचार है और अतिचार से संयम दूषित होता है। अत: साधक को यह ज्ञात हो जाय कि मैंने दोष का सेवन किया है जो अयोग्य था, तो उसे यथाशीघ्र प्रायश्चित्त लेकर उस दोष की विशुद्धि करनी चाहिए। जो उस दोष की विशुद्धि नहीं करता है वह श्रमण विराधक होता है। अपराध में दोष का सेवन होता है, पर वह सेवन विवशता के कारण होता है। सेवन करते समय साधक यह अच्छी तरह से जानता है कि यदि मैं अपवाद का सेवन नहीं करूंगा तो मेरे ज्ञान आदि गुण विकसित नहीं हो सकेंगे। उसी दृष्टि से वह अपवाद का सेवन करता है। अपवाद के सेवन करने में सद्गुणों का अर्जन और संरक्षण प्रमुख होता है। अपवाद में कषायभाव नहीं होता, किन्तु संयमभाव प्रमुख होता है। इसलिए वह अपवाद अतिचार की तरह दूषण नहीं है। अतिचार में कषाय का प्राधान्य होने से अधिक कर्मबन्धन होता है।