भगवान की पूजन में जिनेंद्र देव का आह्वान एवं विसर्जन

जैन मत में भगवान की पूजा संबंधी जो पांच अंग बताए गए हैं अथवा पूजन की जो प्रक्रिया बताई गई है क्या वह प्रक्रिया का कोई ऐतिहासिक उल्लेख है अथवा यह हिंदू धर्म के प्रभाव की एक देन है या यूँ कहें कि विकृति है?

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जैन धर्म

देखा जाए तो भगवान की पूजा - यह कार्य जैनियों ने ही प्रारम्भ किया है अर्थात हिन्दू धर्म के अनुसार उनके देव तथा उनके आराध्य तो अग्नि , जल , पृथ्वी आदिक हैं , यदि मूर्ति पूजा की शुरुआत मानी जाती है , तो जैनों से ही ।

रही बात विधि की , तो इसके संदर्भ में सुना है कि तेरापंन्थ शुद्ध-आम्नाय के अनुसार जिस विधि को हम कहतें है , वो तो हमारी मूल ही है अर्थात जो हमने तेरा नियम बनाये वो पूजा में होने वाली हिंसा को रोकने हेतु थे , इससे ये बात भी ख्याल में आती है की विकृतियाँ तो पहले ही आना शुरू हो गयी थी , उन्ही को रोकने हेतु तेरापंथ की स्थापना हुई ।

जो आह्वान - विसर्जन आदि की बात है , यह पूर्णरूपेण हिन्दू-मत से ग्रहण की गई है । आह्वाहन आदि हिन्दू मान्यतानुसार अग्नि-वेदिका में देवों का किया जाता है ।
( अग्निमुखै वै देवता )

स्थापना तो अनुकूल है ही , क्योंकि परिणाम स्थिर करने हेतु अवलंबन की आवश्यकता होती है , परन्तु भगवान की प्रतिमा सामने हो, तब किसका आह्वान और स्थापन किया जा रहा है …? अर्थात इस पर विचार आवश्यक है ।
@Sayyam ji…

विकृति

एक समय था जब सभी धर्म अपने ही धर्म मे होने वाले संघर्ष को देख रहे थे , वो संक्रांति का काल था । उसी का परिणाम है कि हमने उनसे बहुत कुछ लिया और उनको बहुत कुछ दिया भी , उसी का परिणाम ये विकृतियाँ हैं ।

पाँच अंगों को जैनधर्म में भी स्थान दिया गया । जिनेन्द्र अर्चना की प्रस्तावना के अनुकूल अगर कहा जाए , तो मालूम पड़ता है कि पांच अंग जैसी व्यवस्था तो थी अपने पास /-

अष्ट द्रव्यों से पूजन करने के प्रमाण तो यत्र तत्र बहुत मिलतें हैं , परन्तु आह्वान आदि के प्राचीन प्रमाण नही मिलते ।

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आपका कहना उचित है कि मूर्तिपूजा के प्रतिष्ठापक हम हैं अर्थात् स्थापना निक्षेप के निश्चायक भी हम ही हुए। किन्तु जैसे - वेदों में सूर्य का आह्वनन, स्थापन आदि उल्लिखित है, क्या उस ही अपेक्षा उतनी दूर न सही पर भव्य के द्वारा सच्चे देव को रूपस्थ आदि ध्यानों में स्वीकृत किया ही गया है, उस दृष्टि से आह्वनन आदि भी हमारे ही सिखाए गए होने चाहिए।

अब, विकृति को देखकर क्रिया, परिणाम, अभिप्राय का नियम तो नहीं बनाया जा सकता। हाँ, आवश्यकता अवश्य समझ आती है।

मन्दिरों की प्रतिष्ठा, पूजा पद्धति, आदि सभी विचारणीय हैं।

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मेरे यहाँ विचार ऐसे हैं कि यदि भगवान सामने ही विराजमान हैं , तो अब हम किसकी स्थापना करें…?
● आजकल मंदिरों में यह दिखाई पड़ता है , कि मूलनायक प्रतिमा जिनकी विराजमान है , उनकी भी स्थापना पूर्वक पूजा की जाती है , तो यदि भगवान विराजमान है ही तो ऐसा करके हम उनका अवर्णवाद तो नही कर रहें …?
● वास्तव में देखा जाए तो , स्थापना आदि ये मात्र अवलंबन हेतु निर्मित हैं ।

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