आत्मा के गुण, शक्ति, धर्म

आत्मा (या कोई भी द्रव्य को) हम अनंत गुणों का पिंड कहते है। काफी जगह यह चर्चा भी आती है की की आत्मा में गुण (श्रद्धा, ज्ञान, क्रियावती शक्ति आदि), शक्ति (४७ शक्ति) और धर्म (अस्ति, नास्ति आदि जो परस्पर विरोधी होते है) होते है। इसको कोई विस्तार से समझा सकता है? अगर आत्मा गुण, शक्ति और धर्म तीनो से पहचाना जाता है तो उसे केवल गुणों का पिंड ही क्यों कहा जाता है?

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जय जिनेन्द्र भाई!

उत्तम प्रश्न!
द्रव्य-गुण-पर्याय में धर्म, स्वभाव, शक्ति, योग्यता, भंग, नृत, थट, इत्यादि सामान्य रूप से समाहित होने से इनको अलग से प्रस्तुत नहीं किया गया है।

जहाँ-जहाँ किया गया है विशेष उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ही किया गया है… जिससे ‘वस्तु’- स्वरूप और खिल कर सामने आए।

द्रव्य-गुण-पर्याय - ऐसा सत् है जिसमें सभी दार्शनिक सुरक्षाएँ हो जाती हैं। अब इसका विस्तार जहाँ अभीष्ट हो वहाँ विशेष प्रयोजन से लगाया जा सकता है।

जैसे - क्रियावती शक्ति!

यह पौद्गलिक जीव पर ही लागू पड़ेगी। सिद्धों में नहीं, अर्थात् temporary स्वभाव है। और इसका परिणमन प्रकट होने से यह व्यंजन पर्याय स्वभाववाली है।
इत्यादि।

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धन्यवाद संयम जी। आगे प्रश्न है (अगर प्रश्नसरल हो तो कृपया क्षमा कीजिये)

गुण और शक्ति में क्या अंतर है? इतना समझ आता है की गुण की पर्याय होती है और शक्ति स्वाभाव? इसका और विस्तार कर सकते है? धर्म को हम एक प्रकार की शक्ति ही कह सकते है क्या जिसकी एक परस्पर विरुद्ध धर्म (शक्ति) मौजूद होती है?

श्री रजतजी,

द्रव्य सभी अवस्थाओं का समाहार है।

47 शक्तियों के माध्यम से कहा जाए तो स्वभाव, गुण, पर्याय, धर्म, शक्ति सभी शक्ति के एकार्थवाची हैं।

अन्तर -

  1. धर्म - परस्पर विरोधी धर्म का अन्तर्द्वन्द्व
  2. शक्ति - योग्यता (गुणात्मक-पर्यायात्मक)
  3. गुण - स्वाभाविक नित्य-शक्ति

अब, पर्याय की दृष्टि से बात करें तो,

धर्म की पर्याय होती है - सदा एक जैसी; जैसे - नित्य।

गुण की भी पर्याय होती है - जाति अपेक्षा से एक जैसी, किन्तु व्यक्ति अपेक्षा तद्रूप या अतद्रूप; जैसे - ज्ञान।

शक्ति की भी पर्याय होती है - उसे अभिव्यक्ति कहते हैं।
शक्ति तो सदा स्वभाव रूप ही होती है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक-वैभविक दोनों हो सकती है, बस अस्वभाव नहीं होती; जैसे - क्रियावती शक्ति।

धन्यवाद!

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बहुत उत्तम। इस पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है तभी अच्छे से पकड़ में आएगा।

संयमजी,

व्यंजन पर्याय कैसे?

इन व्याख्या अनुसार चारित्र क्या है? गुण या शक्ति?

आलाप पद्धति में व्यंजन पर्याय को स्थूल, शब्दगोचर कहा है।

हर शक्ति गुण न होने पर भी हर गुण शक्ति तो है ही।

Can you please give page number or screenshot? I want understand it.

आपका अर्थ है कि चारित्र शक्ति है गुण नहीं या आप कह रहे है कि चारित्र गुण है?

और यदि हर गुण में शक्ति है ही तो फिर

गुण की इस व्याख्या में

शक्ति की यह व्याख्या गर्भित हो सकती है क्या? या शक्ति की यह व्याख्या उस शक्ति के लिए ही है जो गुण नहीं?

चारित्र गुण ही है और सभी गुण शक्तियाँ होते हैं; लेकिन हर शक्ति गुणात्मक नहीं होती।

चारित्र गुण की सम्यक् या मिथ्या पर्याय में चारित्र (आचरण) तो होता ही है।

मिथ्या चारित्र - अतद्रूप
सम्यक्चारित्र - तद्रूप

शक्ति की व्याख्या में उदाहरण है चैतन्य।

  1. अब जीव में चैतन्य नाम का धर्म तो है लेकिन अचैतन्य नाम का धर्म नहीं है, इसलिए धर्म नहीं है।
  2. चैतन्य गुणात्मक भी नहीं है, क्योंकि अनेक गुणों का मिलकर कार्य है।
  3. लेकिन इसकी अभिव्यक्ति उपयोग के रूप में स्पष्ट है ही।
    (भले ही अनेक स्थानों पर इसे गुण/धर्म भी कहा ही है।)

जी।

हर गुण शक्ति है यह ठीक है परंतु ज्ञान गुण में शक्ति की यह व्याख्या कैसे बैठती है वह विकल्प था हमें।

स्वाभाविक - सम्यक्
वैभाविक - मिथ्या

सर्वथा ज्ञान हीनता होना - जीव का धर्म नहीं है।

तो चारित्र में स्वाभाविक-वैभविक क्या है?

और

यह ज्ञान में तद्रूप अतद्रूप क्या है?

यह तो ध्यान में है परंतु

इसका कोई शास्त्रीय आधार?

और gentle reminder…

इसका screenshot share करना।

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I’m sorry… Until now, I didn’t realize I was talking to you, Pannaji.

बिलकुल। स्वाभाविक-वैभाविक और तद्रूप-अतद्रुप में अंतर क्या है?

निम्नलिखित अंश परमभाव प्रकाशक नयचक्र से लिया है। यहाँ पर भी शक्ति और धर्म का वर्णन है। लेकिन इसका संदर्भ बिलकुल भी समझ नहीं आया। विद्वत लोग कृपया प्रकाश डालें।

(परमभाव प्रकाशक नयचक्र pg. ३२६)

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हम गुण और शक्ति के भेद को निम्न रूप समझते है। आपने तद्रूप अतद्रूप, स्वाभाविक वैभविक विगेरे से समझाया तो हमें उस तरह समझने की जिज्ञासा हुई, इसलिए प्रश्न किये थे।

हमारी समझ:

सामान्यतः गुण को शक्ति और शक्ति को गुण भी कहते हैं। फिर भी भेदविचार करने पर, गुण की पर्याय होती है और गुण में पर्याय होने की योग्यता को शक्ति कहते हैं।

जैसे ज्ञानगुण और सर्वज्ञत्व शक्ति।
सर्वज्ञत्व पर्याय अलग से नहीं होती, ज्ञान गुण की पूर्णता होने की शक्ति का उदय ही सर्वज्ञता पर्याय है वह ज्ञान गुण की ही पर्याय है।

कुछ शक्ति स्वतंत्र हैं, उन शक्तियों के कारण वस्तु की सिद्धि होती है परंतु उनकी पर्याय नहीं होतीं।
जैसे कर्ता नाम की शक्ति है, उसकी अपनी अलग पर्याय नहीं होती, परंतु इस शक्ति के कारण द्रव्य अपने कार्यरूप परिणमता है।

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आलाप पद्धति में मिल गया। परंतु क्रियावती शक्ति में यह बैठता नहीं।

काफी स्पष्टता आयी। धन्यवाद!

अतद्रूप, तद्रूप और स्वाभाविक-वैभविक के आधार पर भी प्रकाश डालें।

ज्ञान की शक्ति और गुणत्व में अन्तर

ज्ञान शक्ति - अनन्त और क्षयोपशम
ज्ञान गुण - सम्यक् और मिथ्या

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संयमजी एक चिंतक है। गुण और शक्ति को समझने में तद्रूप अतद्रूप स्वाभाविक वैभविक का संबंध उनके चिंतन से आया हो ऐसा भाषित हो रहा है। हमने उस धारा से सोचने की कोशिश की परंतु हमें वह बात अभी बैठी नहीं है। defination में overlap आ रहा है। इसलिए हम उसपर अभी कुछ नहीं लिख नहीं सकते। शायद संयमजी से अधिक चर्चा पर वह स्पष्ट हो।