मिथ्यादृष्टि कौन?

मिथ्यादृष्टि कौन ?

  • हिमांशु जैन’'वर्धमान "
    ( जैन दर्शन विभाग , श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली )

जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन और उसके धारक सम्यग्दृष्टि के विषय में काफी चर्चा चलती रहती है I प्रायः ऐसा माना जाता है कि बाह्य लक्षणों से यह पता लगा पाना बहुत मुश्किल है कि कौन सम्यग्दृष्टि हैं ? और कौन नहीं ?

सम्यग्दृष्टि के बाह्य अच्छे या बुरे भेष या आचरण के माध्यम से यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उसका अंतरंग श्रद्धान कितना विशुद्ध हैं ? अतः उसकी कोई भी बाह्य पहचान स्पष्ट नहीं है। किन्तु सम्यक्त्व से हीन मनुष्य के लक्षण के बारे में आचार्यों ने यत्र तत्र बहुत सारी बातें कही हैं ,जिससे हम बाह्य लक्षणों से कम से कम यह तो समझ ही लेते हैं कि कौन मिथ्यादृष्टि है?

आचार्य कुंदकुंददेव ने रयणसार ग्रंथ में सम्यक्त्व से हीन व्यक्ति के बारे में बहुत ही रोचक लक्षण गिनाएं हैं जिन लक्षणों के माध्यम से हम किसी और की नहीं तो स्वयं अपनी पहचान तो कर ही सकते हैं।

हम ईमानदारी पूर्वक विचारें करें कि यदि यह लक्षण हमारे भीतर हैं तो हम वास्तव में कितने पानी में हैं?

इन लक्षणों के माध्यम से आचार्य कुंदकुंद देव एक धर्मात्मा मनुष्य के अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण भी करना चाहते हैं, और इसी बहाने यहाँ हम यह समझ सकते हैं कि व्यवहार से गृहस्थ हो या साधु, सम्यग्दृष्टि में यह व्यक्तित्व संबंधी दोष भी नहीं होने चाहिए ।

आचार्य कुंदकुंद ने इस माध्यम से व्यक्तित्व विकास के सूत्र भी बताए हैं जिन्हें श्रावकों और साधुओं को अवश्य अपनाना चाहिए और इसके अभाव में हम सज्जन भी कहलाने के हकदार नहीं है , धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि तो बहुत दूर की बात है ।

आचार्य कुंदकुंद कहते हैं -
ण वि जाणदि कज्जमकज्जं सेयमसेयं पुण्णपावं हि। तच्चमतच्चं धम्ममधम्मं सो सम्मउम्मुक्को।।(रयणसार, गाथा-४o)

अर्थ:- जो व्यक्ति कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को, श्रेय और अश्रेय को, पुण्य और पाप को, तत्त्व और अतत्त्व को, धर्म और अधर्म को निश्चय से(वस्तुतः)नहीं जानता है ,वह सम्यक्त्व से रहित जीव है।

इस श्रावक का क्या कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य है उसे बताते हुये कहा है -
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय: संयमस्तप: । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने।।,( पद्मनन्दिपंचविंशति/अ.७/ श्लोक.७)

अर्थ :- श्रावक का मुख्य कर्तव्य षट्आवश्यक प्रतिदिन करने योग्य हैं देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम,तप,दान। जो यह प्रतिदिन नहीं करता वह अपना कर्त्तव्य नहीं निभाता।

अब इस श्रावक का क्या श्रेय और अश्रेय है वह बताते है-

न सम्यक्त्वसमं किंश्चित, त्रैकाल्ये। त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं, नान्यत्तनूभृताम्

अर्थ: - तीनों कालों में (भूतकाल वर्तमानकाल भविष्यकाल) तथा लोक में प्राणियों के लिए सम्यक्त्व के समान कोई श्रेय (कल्याणकारी) नहीं है, और मिथ्याव के समान कोई अश्रेय(अकल्याणकारी) नहीं है ।

तत्त्व और अतत्त्व क्या‌ है‌ इसको समझाते हुए कहते हैं -

जीवादि प्रयोजन भूत तत्व, सरधे तिन माहिं विपर्यय तत्त्व ।

अर्थः - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष यह सांत जानने योग्य प्रयोजनभूत तत्त्व हैं और इनसे विपरीत जानने को अतत्व है।

अब धर्म और अधर्म को इस प्रकार बताते हैं -
देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्म निवहरणम् । संसार दुःखत: सत्वानां, यो धरत्युत्मे सुखे ॥
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक-२)

अर्थः - मैं उस श्रेष्ठ धर्म को कहूंगा जो कर्मबंधन को नष्ट करने वाला है तथा जो प्राणियों को पंचपरावर्तन रूप संसार के दुःखों से निकालकर स्वर्ग के और मोक्ष के बाधा रहित उत्तम सुखों को प्राप्त करा देता है।
अब आगे आचार्य कुंदकुंद देव सम्यक्त्व से रहित जीव की पहचान बताते है-
ण वि जाणदि जोग्गमजोग्गं, णिच्चमणिच्चं हेयमुवादेयं । सच्चमसच्चं भव्वमभव्वं, सो सम्मउम्मुक्को ॥
(रयणसार,गाथा- ४१)

अर्थः- जो व्यक्ति सम्यक्तव से रहित होते है ,वह योग्य - अयोग्य को, नित्य-अनित्य को ,हेय - उपादेय को, सत्य-असत्य को तथा भव्य - अभव्य के अंतर को नहीं जानते -

उग्गो तिव्वो दुट्ठो, दुब्भावो दुस्सदो दुरालावो।दुम्मदरदो विरुद्धो, सो जीवो सम्मउमुक्को ॥(वही, गाथा-४३)

अर्थ :- जो जीव उग्र, तीव्र , दुष्ट स्वभाव वाला हो, खोटी भावनाएँ करता रहता है तथा जो मिथ्याज्ञानी, दुष्टभाषी, मिथ्यामद में अनुरक्त और धर्म - विरोधी होता है वह सम्यक्त्व से रहित है।

आगे भी कहा है कि -
खुद्दो रुद्दो रुट्ठो अणिट्ठ पिसुणो सगव्वियोसूयो । गायण जायणभंडण दुस्सणशीलो दु सम्मउम्मुको ॥
( वहीं, गाथा - ४४)

अर्थ- जो जीव क्षुद्र, रूद्र ,अनिष्टकारी, चुगली करने वाला, घमण्डी व ईष्यालु हो, गाना बजाना , माँगना और लड़ाई - झगड़ा करने वाला हो और जो दोष स्वभावी हो, वह सम्यक्त्व से रहित है। और आगे भी कहते है कि

बाणर गद्दहसाण गयबग्घवराह कराह । मक्खिजलूय सहावणर जिणवरधम्मविणास
( वहीं, गाथा-४५)
अर्थ-जो जीव बन्दर,गधा, कुत्ता, हाथी, बाघ, शूकर, कछुआ,मक्खी तथा जोंक के स्वभाव वाला होता है वह जिनेंद्र देव के धर्म का विनाश करने वाला होता है ऐसा जीव सम्यक्त्व से रहित रहता है।

आगे कहते है -
एक्कंखणं ण वि चिंतदि मोक्खणिमित्तं णियप्प सब्भावं। अणिसि वि चिंतदि पावं बहुलालवं मणे वि चिंतादि॥( वहीं, गाथा - ५०)

अर्थ-जो जीव मोक्ष प्राप्ति के निमित्तभूत अपने आत्म स्वभाव का एक क्षण भी चिंतन नहीं करता और दिन-रात पाप का चिंतन करता है तथा मन में दूसरों के बारे में अनेक बातें सोचता रहता है वह सम्यकत्व से रहित जीव है।

उपसंहार -

इस प्रकार अनेक प्रकार से सम्यक्त्व से हीन जीव की पहचान करवाई है अब इसमें हमें अपनी खोज करनी है कि हम भी सम्यक्त्व से रहित हैं या सहित है ,अगर यह सारी पहचान हमारी में पाई जाती है तो हमें चाहिए कि इन सब का परिहार करके सम्यक्त्व के सन्मुख हो, क्योंकि मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन ही है।

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