पाँच समवाय में एक पुरुषार्थ नाम का समवाय भी है। जैन दर्शन में प्रत्येक कार्य के होने में पांचों समवाय की उपस्थिति को स्वीकार किया गया है। प्रश्न ऐसा है कि किसी भी कार्य के होने में जो पुरुषार्थ नाम का समवाय है उसका वहाँ पर क्या कार्य होता है? अथवा वह किस रूप में अपना योगदान देता है?
जीव के साथ साथ उन कार्यों के संबंध में भी विचार करें जहाँ जीव के बिना ही कार्य हो रहे हैं, और वहाँ कैसे यह घटित होता है।
नोट- पण्डित टोडरमल जी साहब का प्रकरण भी ख्याल में है, उसके बाद भी यह प्रश्न है।
यह समझ में नहीं आया। प्रत्येक द्रव्य के स्वयं के पुरुषार्थ होने में क्या बाधा है? पुद्गल के परिणमन में पुरुषार्थ तो पुद्गल का ही हुआ, जीव निमित्त हो भी सकता है, नहीं भी।
पाँच समवायों को यदि निमित्त उपादान के भेदों के रूप में समझते है तो बात और स्पष्ट हो जाती है।
No.
प्रश्न
समवाय
निमित्त-उपादान
1.
कहाँ
स्वभाव
त्रिकाली उपादान
2.
कैसे(स्व)
पुरुषार्थ
अनंतर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय का व्यय
3.
क्या/कैसा
भवितव्य/होनहार
तत्समय की योग्यता
4.
कब
काललब्धि
तत्समय की योग्यता
5.
कैसे(पर)
निमित्त
निमित्त
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मुख्यतः, द्रव्यानुयोग के अनुसार (वस्तु-व्यवस्था - what is) -
पुरुषार्थ में योग्य-अयोग्य अथवा सही/ गलत का कोई भेद नहीं है। जो कार्य होने योग्य है, उसके लिए जो कारण होगा उसे ही पुरुषार्थ कहेंगे - यथा नरकायु बाँधवाले जीव का बहुत आरम्भ एवं बहुत परिग्रह के भाव तदनुकूल योग्य पुरुषार्थ है।
मुख्यतः, चरणानुयोग के अनुसार (what ought to be) -
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए जो पुरुषार्थ किया जाए वह सब सही और मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए जो पुरुषार्थ किया जाए, वह सब गलत।
छहों द्रव्य में वीर्य गुण है पुरुषार्थ वीर्य गुण की पर्याय है
उसका परिणमन होना ही पुरूषार्थ है।
पुरुषार्थ प्रत्येक पर्याय में कारण रूप से विद्यमान है अर्थात अनंतरपूर्वक्षणवर्ती पर्याय के व्यय में पुरुशार्थ कारण रूप विद्यमान है वीर्य प्रत्येक गुण को परिणमन की ताकात देता है।यही
सम्यकदर्शन के पूर्व जो पंचलब्धि रूप पर्याय में आत्मिक गुण का परिणमन हुआ उसमे पुरुशार्थ की सिद्ध हो रही है।
सभी द्रव्य में ऐसे ही लगाना है जैसे धर्म द्रव्य का स्वभाव रूप परिणामन हो रहा उसमे उसके वीर्य गुण की पर्याय प्रत्येक समय मे हो रही है उसका नाम पुरुषार्थ है।
प्रथम में तो प्रति-प्रश्न करना चाहूँगा ।-
" उपस्थिति , क्या यह शब्द सही है ?, इस शब्द का तात्पर्य ख्याल में नही आया , क्योंकि पाँच समवायों में एक ( भवितव्यता ) तो स्वयं कार्यरूप है । तो पाँचों की उपस्थिति कैसे बनेगी ? , कृपया इसका समाधान करें …? "
संक्षेप में कहें /-
द्रव्य का अपने स्वभाव रूप परिणमन ही उसका पुरुषार्थ है ।
या
अपने स्वभाव की रचना पर्याय में करना पुरुषार्थ है ।
और जीव के संदर्भ में कहें , तो आदरणीय अभय जी भाईसाहब , देवलाली वालो ने , इसे एक सूत्र रूप में प्रस्तुत किया है /-
पुरुषार्थ होना सहज है , और सहजता की अनुभूति ही पुरुषार्थ है ।