जैंनेद्र सिद्धांत कोश, भाग 1 ,pg 282 पर लिखा है- अपने अपने निमित्त रूप योग को प्राप्त करके आत्म प्रदेशों में स्थित पुद्गल कर्म भाव रूप से परिणामित हो जाते है, उसे द्रव्य बंध कहते है।
साथ ही ,
जैंनेद्र सिद्धांत कोश, भाग 3 ,pg 171 पर लिखा है- "कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है।"
तो द्रव्य बंध का ऐसा क्या स्वरूप है जो उसकी द्रव्य आश्रव से भिन्नता को बताता है?
इसमें इतना और जोड़ लीजिए कि भावास्रव एवं भावबन्ध के कारण क्रमश: योग और कषायें हैं, जिनका परिवर्तन इतना शीघ्रता से होता है कि हम पकड़ नहीं पाते। हमें कषाय भी बिना योग के नहीं होती, किन्तु अरिहंतों को कषाय के बिना भी योग होता है, जिससे आस्रव भी है ही। किन्तु किसी-किसी स्थान पर उसे 1 समय का बन्ध भी कहने का आगम है।
वैसे जिस समय में आना होता है उसमें भी कथंचित् रुकना भी शामिल ही है किन्तु तत्त्वों को विशद रूप से, अच्छे से समझने हेतु यह द्रव्य-संग्रह ग्रन्थ का उद्धरण सटीक ही है।
तो दोनों बातें अपेक्षा वश स्वीकृत हैं।
रही बात आपके कोश के नीचे वाले उद्धरण की तो वहाँ आस्रव सहित बन्ध की परिभाषा अभीष्ट है।
बिल्कुल बराबर
कार्मण वर्गणा कर्म रूप परिणमित हुई उसी को आश्रव और कार्मण शरीर के साथ जुड़ने को बंध कहेंगे,
अगर हम उत्पाद -व्यय- दृव्य उक्त की अपेक्षा से कहे तो पूरा कार्य एक ही समय मे होगा,
क्या भाव आश्रव पहले समय मे होगा?और दूसरे समय मे द्रव्य आश्रव होगा?या दोनों एक ही समय मे होगा
कृपया समाधान करे
भाव बन्ध तो जगत प्रसिद्ध है ही।
कषाय से होने वाला, मिथ्यात्व परिणाम जिसका मूल है, ज्ञानावरण आदि 8 प्रकार का, प्रकृति आदि 4 की प्रक्रिया से युक्त, सत्ता आदि करणों से संचालित, मतिज्ञान आदि 148 उत्तर भेदों वाला भाव बन्ध होता है।