अन्यथानुपपत्ति (अनुमान प्रमाण)

:pray:t2: आराधना कथा कोश के पात्र केसरी जी की कथा में अनुमान-प्रमाण के विषय में अन्यथानुपत्ति यह शब्द आया है कृपया जो सके तो अन्यथानुपत्ति क्या होता है स्पष्टीकरण देवे। आभार।:pray:t2: … (Pls see कथा के लिंक in reply :pray:t2:)

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https://nikkyjain.github.io/jainDataBase/teeka/05_प्रथमानुयोग/01_आराधना-कथा-कोश--ब्र-नेमिदत्त/html/index.html#gatha-001

अन्यथानुपपत्ति का अर्थ है - ‘किसी अत्यायश्यक कारण के बिना’। किसी तथ्य के अनेक कारण होते हैं किंतु उनमें से कोई एक कारण सर्वप्रधान होता है। अन्य कारणों के रहते हुए भी इस प्रधान कारण के बिना कार्य की उत्पति संभव नहीं होती। इस प्रधान कारण के अभाव में जब कार्य की उत्पति असंभव होती है तब उस कार्य को असाधारण कारण के बिना ‘अन्यथानुपपत्ति’ कहा जाता है।

अनुमान प्रमाण में व्याप्ति का सहारा लिया जाता है, जैसे पर्वत पर धुआँ है, इसका मतलब वहां अग्नि का सद्भाव है ।
तो व्याप्ति बनेगी की जहाँ-जहाँ धुआँ होगा, वहाँ-वहाँ अग्नि होगी ।
इसी का नाम अन्यथानुपपत्ति है ।
अन्यथानुपपत्ति का सामान्य अर्थ है कि -
अन्यथा - इसके बिना
अनुपपत्ति - इसका न होना।

बाकी विद्वज्जन समाधान करें ।
@jinesh
:pray::pray::pray:

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दो चीज़े होतीं हैं ।-

  1. साध्य
  2. साधन

साधन से साध्य की प्राप्ति होती है, यह सर्वविदित ही है ।
जैन न्याय में साधन के लक्षण स्वरूप अन्यथानुपपत्ति का ग्रहण हुआ है , वहाँ कहा कि -
अन्यथानुपपत्तेक लक्षणम् तत्र साधनम् ।

                - श्लोकवर्तिक "

और यह भी कहा कि -
जहाँ अन्यथानुपपत्ति वाली बात आ जाए , वहाँ दूसरी किसी चीज़ की जरूरत नही है । जैसा कि बौद्धों और योगों के लिए न्याय दीपिका में कहा है ।-
" अन्यथानुपपन्नत्वम यत्र तत्र त्रयेण किं ?
नान्यथानुपपन्नत्वम यत्र तत्र त्रयेण किं । ? "
:maple_leaf:
" अन्यथानुपपन्नत्वम यत्र किं तत्र पंचभिः ?
नान्यथानुपपन्नत्वम यत्र किं तत्र पंचभिः ? "

For more solution -

https://t.me/c/1172485361/9353

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Telegram link doesn’t work…shows that message belongs to a private group…

" अन्यथानुपपन्नत्वम यत्र किं तत्र पंचभिः ?
नान्यथानुपपन्नत्वम यत्र किं तत्र पंचभिः ? " … इसका अर्थ क्या है ?

पात्रकेशरी को संदेह हुआ – की जैन धर्म में जीवादिक पदार्थों को प्रमेय-जानने योग्‍य माना है और तत्‍वज्ञान-सम्‍यज्ञान को प्रमाण माना है । पर क्‍या आश्‍चर्य है कि अनुमान प्रमाण का लक्षण कहा ही नहीं गयायह क्‍यों ?… इन श्लोक से इस प्रश्न का क्या उत्तर मिला यह समझ नहीं आया ! :thinking:

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:pray:t2: बहुत बहुत आभार :pray:t2:

:pray:t2: बहुत बहुत आभार! … लिंक ओपन नहीं हो रही है पर फिर भी आपके स्पष्टीकरण से कुछ समझ आया। :pray:t2:

पंचभिः से तात्पर्य है ।-
नैयायिकों ने हेतु का स्वरूप पंचरूप माना है , अन्यथानुपपत्ति नही माना , जोकि इस प्रकार है ।-

  1. पक्ष-धर्मत्व
  2. सपक्ष-सत्व
  3. विपक्ष-व्यावृत्ति
  4. अबाधित-विषयत्व
  5. असत्प्रतिपक्षत्व ।

तो जैन आचार्यों ने अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का लक्षण माना है , इस बात को सिद्ध करते हुए कहा , कि जहाँ अन्यथानुपपत्ति है , वहाँ इन पाँचो की क्या जरूरत और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नही है , वहाँ ये पाँच से भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नही हो पायेगा ।

न्यायदीपिका का विशेष अध्ययन करने पर सारी बातों का समाधान हो जाएगा ।

अनुमान को प्रमाण का लक्षण न मानना तो स्पष्ट ही है , क्योंकि प्रमाण मात्र इतना नही जितना अनुमान ज्ञान cover करता है । केवलज्ञान भी प्रमाण है , ओर वह पूर्ण प्रत्यक्ष है ।
तथा सम्यकज्ञान को लक्षण इसलिए कहा , क्योंकि सम्यकज्ञान यह लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असंभव आदि दोषों से रहित सिद्ध होता है ।

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:pray:t2: Same here … From replies अन्यथानुप्पत्ति शब्द कुछ समझा पर कथा के संदर्भ में भी इसका अधिक स्पष्टीकरण मिले तो हमे भी अधिक मदत होगी। … :pray:t2:

न्याय में अन्यथानुपपन्नत्व = अर्थापत्ति।

मीमांसा दर्शन में अर्थापत्ति एक प्रमाण माना गया है। यदि कोई व्यक्ति जीवित है किंतु घर में नहीं है तो अर्थापत्ति के द्वारा ही यह ज्ञात होता है कि वह बाहर है। प्रभाकर के अनुसार अर्थापत्ति से तभी ज्ञान संभव है जब घर में अनुपस्थित व्यक्ति के संबंध में संदेह हो।

जैन दर्शन में इसे अनुपलब्धि हेतु के रूप में बताकर अनुमान के अन्तर्गत ही स्वीकार किया है। (विधिसाधक-निषेधरूप या निषेधसाधक-विधिरूप)

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