वीतरागी जिनधर्म में रागी-देवताओं की उपासना-पद्धति?
(अनुकरणीय बड़ा-आलेख)
प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली
आजकल एक बड़ा-फैशन बनता जा रहा है कि “जिनेन्द्र देव की उपासना, पूजा, स्तुतियों में यदि कर्त्तावादी-प्ररूपण हैं, तो उन्हें स्वीकार्य माना जाये और उन पर आपत्ति नहीं प्रकट की जाये।” इसीतरह “प्रथमानुयोग एवं चरणानुयोग के ग्रन्थों में जो निमित्ताधीन-कथन हैं, उन पर भी कोई आपत्ति या स्पष्टीकरण दिये बिना उन्हें स्वीकार किया जाये, क्योंकि वे तो जिनवाणी में ही प्रतिपादित हैं।”
तो सबसे पहले यही जान लिया जाये कि जिनधर्म में आराध्य/पूज्य कौन हैं, जिनकी आराधना/भक्ति/पूजा की जाये?
सीधा व सरल उत्तर है कि जिनधर्म में एकमात्र वीतरागी जिनेन्द्र देव की, वीतरागता की पोषक जिनवाणी की और वीतरागता के मार्ग पर अग्रसर परम-वैराग्यरस के धनी भावलिंगी नग्न-दिगम्बर-जैन मुनिवरों की ही आराधना/भक्ति/पूजा की जाती है।
तो मेरा सरल प्रश्न है कि क्या सभी जैन इस तथ्य को जानते व मानते हैं? सामान्यतः उत्तर यही आयेगा कि “हाँ, जानते भी हैं और मानते भी हैं।”
यदि यह सत्य है, तो **वीतरागी देव, वीतरागता की पोषक जिनवाणी और वीतरागता के मार्ग पर चलनेवाले भावलिंगी-निर्ग्रन्थ-साधुओं की आराधना/पूजा/भक्ति करनेवाले उनके प्रति कर्त्तावादी-दृष्टिकोण कैसे रख सकते हैं? वे यह कैसे कह सकते हैं कि “तुम ही स्वामी हाथ बढ़ाकर, तारो तो तिर जायें”? वे यह कैसे कह सकते हैं कि “हे प्रभो! मेरे दुःख दूर करो। मेरे सब संकट मेट दो। मेरी हारी-बीमारी दूर कर दो। मुझे मुकदमे में जिता दो। मेरे शत्रुओं का नाश कर दो”… इत्यादि। क्योंकि वीतरागी कभी किसी का भला या बुरा कर ही नहीं सकते हैं, कारण कि भला या बुरा करने की भावना राग-द्वेष की परिणति है। राग-द्वेष के बिना कोई भी किसी का भला-बुरा करने की सोच भी नहीं सकता है, करना तो बहुत दूर की बात है।
अब तय करना आपका काम है कि आप रागी-द्वेषी की पूजा-अर्चना करने जाते हैं या वीतरागी की? कन्फर्म करिये, तब बोलिये। व्यर्थ की बहानेबाजी मत कीजिये।
इस विषय में आदरणीय बाबूजी ‘युगल’ जी की ये पंक्तियाँ मननीय हैं–
"माना कि तुम झट बेटा देते हो,
और डाकिनी-भूत तुरत ही हर लेते हो।
कभी-कभी तो तुमको भी कौतूहल आता,
सहज फेर देते सहसा ही जज का माथा।।
इसीलिये आवश्यकता भगवान् तुम्हारी,
ब्लैक-मार्केटिंग में रखते लाज हमारी।
और नहीं तो हमको तुमसे मतलब ही क्या?
दुनियाँ में बस इसीलिये भगवान् बच गया।।
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।। 1।।
करता है उपहास राग यों वीतराग से,
गाली सुनता वीतराग रे! अधम-राग से।… "
इसमें स्पष्ट कहा गया है कि वीतरागी से अपने विषय-भोगों व सांसारिक-आकांक्षाओं की पूर्ति की अपेक्षा करना उनकी भक्ति नहीं है, बल्कि उनका अपमान करना है, गाली देने के समान है।
अब आप हृदय पर हाथ रखकर विचार कीजिये कि आप वीतरागी की भक्ति कर रहे हैं या अपमान कर रहे हैं? आप उनकी विनय कर रहे हैं या विनय-मिथ्यात्व बाँध रहे हैं।
तो भगवान् से अच्छी चीजें तो माँग सकते हैं न? मोक्ष माँगें, सम्यग्दर्शन माँगें, आत्महित माँगें–इनमें तो आपको कोई आपत्ति नहीं है न?
यह भी एकतरह का मजाक ही है और कुछ नहीं। जैसे किसी मौनव्रती से सांसारिक चर्चा करने की जगह प्रवचन करने की अपेक्षा की जाये। जब मौनव्रती है, तो कुछ भी कैसे बोल सकता है? इसीप्रकार जब वीतरागी हैं, तो किसी का भी कुछ भी भला या बुरा कैसे कर सकते हैं?-- क्या इतना भी विवेक आपको नहीं है, जो ऐसे बहाने करके भगवान् की वीतरागता का उपहास उड़ाना चाहते हो?
कुछ लोग कहते हैं कि “व्यवहारनय से ऐसे कथनों को उचित मानने में क्या हानि है?” उन्हें व्यवहारनय का स्वरूप ही नहीं पता है। व्यवहारनय निश्चयनय या वस्तुस्थिति का विरोध नहीं करता है। वह तो निश्चयनय के विषयभूत-कार्य के निमित्त व सहचारी-कारणों को ही मोक्ष का कारण कहता है।
जैसे वज्रवृषभनाराच संहनन, तीर्थंकर-नामकर्म-प्रकृति, कर्मों की निर्जरा आदि निमित्तभूत व सहचारी-कारणों को कार्य का नियामक कहना तो व्यवहारनय का कथन कहा जा सकता है ; परन्तु किसी के भाई होने या किसी नगर में जन्मने, किसी बाहरी-घटनाक्रम को निमित्तपने या सहचारीपने के अभाव में व्यवहारनय से भी मोक्षरूप-कार्य का नियामक-कारण नहीं कहा जा सकता है।
इसीप्रकार वीतरागी की विनय में लौकिक-शिष्टाचाररूप प्रासुक-अष्टद्रव्यों से पूजन, वचनात्मक-गुणानुवाद करना, वंदन करना, प्रदक्षिणा देना, साष्टांग या पंचांग-नमस्कार करना आदि बाहरी क्रियाओं को तो व्यवहारनय से वीतरागी जिनेन्द्र देव की विनय/भक्ति आदि कहा जा सकता है और निष्कामभाव से मात्र आदर्श के गुणानुवाद रूप में की गयी इन क्रियाओं को निमित्त व सहचारी होने से व्यवहार-भक्ति/पूजा/विनय आदि के रूप में लिया गया है। किन्तु जो बातें वीतरागी जिनेन्द्र देव के स्वरूप में ही शामिल नहीं हैं और जो जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप से ही विरुद्ध हैं (जैसे कि कर्तावादी मानकर उन्हें हमारे भले-बुरे का कर्त्ता मानना व अन्य गृहीत-मिथ्यात्व के रूप में वर्णित मान्यताओं और कार्यों को व्यवहार-जिनेन्द्र-भक्ति मानना असंगत है), उन्हें व्यवहार ले जिनेन्द्र-भक्ति आदि रूप मानना व्यवहार नहीं, मिथ्यात्व ही है।
जो प्राचीन कवियों ने ऐसी बातें पूजनों, पाठों, भक्तियों में लिखीं भी हैं, वे उस युग में मुगल-दासता और फिर अंग्रेजों की गुलामी से दमित-मानसिकता की प्रतीक हैं, न कि जैनदर्शन की मान्यता के अनुरूप हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द देव ने ‘समयसार’ जैसे कालजयी-ग्रन्थ में व्यवहार से जिनेन्द्र देव के देहाश्रित-गुणों/विशेषताओं को लक्षित करके लिखी गयी स्तुति आदि को व्यवहारनय के कथन के रूप में बताया है ; क्योंकि उनके उस भव में संयोगस्थ-देह में वह वर्णादिक-वैशिष्ट्य विद्यमान तो हैं।
किन्तु पर का कर्त्तापना तो जिनेन्द्र देव के तीनकाल में कभी भी किसी भी रूप में संभव ही नहीं है। क्योंकि यह तो वस्तु-स्वरूप में ही कदापि संभव नहीं है। इसकी जन्मभूमि मात्र मिथ्यात्व और अज्ञान से जन्मी वासनायें ही हैं। इसलिये जितनी कर्त्तावादी-बातें हैं, वे जिनधर्म की परिधि से ही बाहर होने से उन्हें व्यवहारनय का प्रतिपादन कहकर भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है।-- यह अकाट्य एवं ध्रुव-सत्य है।
दूसरी-बात कही गयी कि प्रथमानुयोग व चरणानुयोग के ग्रन्थों में निमित्त-नैमित्तिक की प्रधानता से कथन किये गये हैं, तो पहले निमित्त का स्वरूप तो निर्धारित कर लीजिये कि जिनाम्नाय में ‘निमित्त’ संज्ञा किसकी है और क्या निमित्त की संज्ञा ‘मात्र कहने के लिये’ एक ‘आरोपित-संज्ञा’ है या वह वास्तव में कुछ कर्त्ता भी है? कार्य उपादान में स्वयं की योग्यता से निष्पन्न होता है। जो बाहर में अनुकूल कही जाने योग्य सामग्री सहज-उपलब्ध होती है, उस पर ‘निमित्त’ होने का आरोप आ जाता है। यह संसारी छद्मस्थों द्वारा सीमित-ज्ञान के परिणामस्वरूप आरोपित की गयी संज्ञा है। जिनशासन में कोई भी वस्तु अपने आप में ‘निमित्त’ के रूप में संज्ञित नहीं है।
यह तो सीमित-ज्ञान से होने वाले आभास से किया गया प्रयोग है, वस्तु-स्वरूप नहीं है।
इसीलिये आज तक किसी भी केवली के केवलज्ञान में कोई भी वस्तु ‘निमित्त’ के रूप में नहीं देखी गयी है। केवली यह तो स्पष्ट जानते हैं कि संसारीजन अपने अनिर्मल/अविशद-परोक्षभूत ज्ञान से उत्पन्न आभासों में परवस्तुओं का निमित्तपना मानते हैं, किन्तु केवलज्ञान किसी भी वस्तु को किसी अन्य वस्तु के कार्य के निमित्तरूप में वस्तुतः नहीं जानता देखता है ; क्योंकि निमित्तपना वास्तव में वस्तु और उसके कार्य को स्वीकार्य ही नहीं है। उसमें को प्रत्येक वस्तु के एक-एक कार्य/परिणति की अनन्त-स्वाधीनता ही झलकती है।
’मोक्षमार्ग प्रकाशक’ नामक अनुपम-ग्रन्थ में इसीलिये जब पंडित प्रवर टोडरमल जी ने चारों अनुयोगों की कथन-पद्धतियों का मर्म उद्घाटित किया गया, तो प्रथमानुयोग और चरणानुयोग के ग्रन्थों की कथन-पद्धति में निमित्त-नैमित्तिक दृष्टि की प्रधानता कही है। जो कि पूर्णतः उपचार-कथन है, वास्तविक नहीं है। इसतरह के प्रतिपादनों को पंडित टोडरमल जी ने वहाँ कहीं भी उपादेय नहीं बताया है।
विचार कीजिये कि पाँचों महाव्रतों के नियम-उपनियम सीखकर भी किसी का छठवाँ-सातवाँ गुणस्थानरूप सच्ची-मुनिदशा होना संभव नहीं है, क्योंकि जो सीखते हैं, वह बाहरी क्रियारूप है, उससे सच्ची मुनिदशा का कोई निर्धारण संभव ही नहीं है। किन्तु जो आत्मस्वरूप में स्थिरता की वृद्धि करके छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हैं, उस समय एक भी महाव्रत का बाहरी-आचरण नहीं करते हुये भी वे सच्ची-मुनिदशा को ही प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि जो व्यवहारनय की प्रधानता से चरणानुयोग के कथन हैं, वे वास्तविकता के नियामक नहीं हैं।
जबकि चरणानुयोग में ही जो निश्चयनय के अनुसार एक आत्मानुभूति है, उसमें सारा का सारा चरणानुयोग चरितार्थ हो जाता है। जबकि एड़ी-चोटी का जोर लगाकर किया गया बाह्याचरण कभी भी उसका नियामक नहीं बन सकता है। उसकी तो व्यवहार संज्ञा भी तभी हो सकती है, जब निश्चयरूप मुनिधर्म/चारित्र घटित हो रहा हो। यदि निश्चय-चारित्ररूप आत्मानुभूति नहीं है, तो कोरे बाह्याचरण की तो व्यवहार और निमित्त संज्ञा भी नहीं है। अतः किसने कह दिया कि चरणानुयोग में निमित्तपने की प्रधानता है?
रही बात प्रथमानुयोग की, तो उपादान में कार्य प्रतिफलित होने पर ही निमित्तों का उल्लेख यह अनुयोग करता है, न कि बिना उपादान में कार्य के प्रतिफलन के। महावीर के जीव ने मरीच के भव में प्रभु आदिनाथ के माध्यम से जान भले ही लिया था कि वह वर्तमान चौबीसी का चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा; किन्तु उस तीर्थंकरत्व के प्रतिफलित हुये बिना वह प्रथमानुयोग का पात्र नहीं बना था। हम भविष्य काल के तीर्थंकरों की पूजा करते हैं, किन्तु उनके भविष्य के वीतरागी स्वरूप की ही करते हैं, न कि वर्तमान की उनकी पर्याय की। तब प्रथमानुयोग भी निमित्त-प्रधान कैसे हुआ? वह तो कार्य के बिना निमित्त संज्ञा तक किसी को नहीं देता। यदि केवली के वचनानुसार कार्य के पहले ऐसी कोई संज्ञा प्रयुक्त भी होती है, तो वह मात्र उस निश्चय-कार्य के घटित होने की स्थिति की विवक्षा में, न कि पहले से उसे निमित्त मानकर उसका कर्त्तापना घोषित करने के लिये।
यदि तीर्थंकर नेमिनाथ जी के द्वारा द्वारिका-दहन के निमित्त रूप में यादव-कुमारों एवं द्वीपायन-मुनि का निमित्त रूप में उल्लेख भी प्रथमानुयोग बतलाता है, तो उसमें वास्तविक-स्थिति मात्र इतनी ही है कि उस समय ऐसा संयोग होगा, न कि ये द्वारका-दहन के ‘कारक’ होंगे।
हमने कर्त्तावादी होकर प्रथमानुयोग के ग्रन्थों पर यह आरोप अपनी ओर से जड़े हैं, न कि जिनेन्द्र देव ने ऐसा कहीं कहा है। और इस तरह के निमित्तपरक-कथनों को जानकर जिन्होंने निमित्तभूत-सामग्रियों को हटा दिया था (शराब आदि को), तथा अपने को मात्र निमित्तरूप न मानकर कर्त्ता माननेवाला द्वीपायन-मुनि भी द्वारिका से बहुत दूर चला गया था, तो भी क्या निमित्तरूप कहे गये ये सब अपनी योजनाओं में सफल हो सके? द्वारिका-दहन तो तब भी हुआ न? रोकने की इनकी लाख कोशिशों के बाद भी हुआ। तो प्रथमानुयोग के कथनों में निमित्त कर्त्ता कैसे बन गया? जैसी की आपत्ति आज के विद्वद्गण प्रस्तुत कर रहे हैं।
मैं इन आपत्तियों को प्रस्तुत करनेवाले विद्वानों की ऐसे कथनों के पीछे निहित व्यावसायिक-विवशता को समझता हूँ। क्योंकि मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि वे भी जिनवाणी में कहीं भी निमित्त को कर्त्ता बताने वाले कथन नहीं निकाल सकते हैं। जो होगा, वह अज्ञानियों की मान्यतारूप ही होगा, सम्यग्ज्ञानी-जीव के कथन व आचरणरूप कदापि संभव नहीं है। और जब इन ग्रन्थों में वह बात अज्ञानियों की मानसिकता के रूप में वर्णित है, तो उसे इन अनुयोगों का या केवली/आचार्यों का कथन क्यों कहते हो?
एक जिज्ञासा यह भी प्रस्तुत की गयी कि “आयुर्वेद एवं प्राकृतिक-चिकित्सा में एक ‘स्वकल्प-भावना’ नामक चिकित्सा-विधि है। जिसके अनुसार भगवान की भक्ति ,नाम जाप, पूजन विधान, ध्यान आदि से रोगी शीघ्र निरोग होता है। अतः हर समय हर क्रिया को मिथ्यात्व-पोषक समझना कहाँ तक उचित है? विचार करें।”
तो इस विषय में मेरी यह जिज्ञासा है कि आयुर्वेद या प्राकृतिक-चिकित्सा की यह विधि दैहिक-उपचार के लिये बतायी गयी है, या आत्मिक-उपचार के लिये? यदि दैहिक-उपचार तक इनकी दृष्टि सीमित है और आत्मिक-उपचार की दृष्टि इन्हें प्राप्त ही नहीं है, तो मेरा कथन देह-दृष्टिवालों के लिये तो था ही नहीं। वह तो आत्मिक-दृष्टि में उत्पन्न विकृतियों के निवारणार्थ था। अतः आपकी यह आपत्ति मेरे प्रतिपादन पर लागू ही नहीं होती है।
साथ ही मेरा यह अनुरोध है कि कृपया यह स्पष्ट करें कि जिसमें से यह क्रिया का उल्लेख किया गया है, वह आयुर्वेद एवं प्राकृतिक-चिकित्सा का ग्रन्थ क्या जिनवाणी के अंगभूत है? यदि नहीं, तो उसके अनुसार जो प्रतिपादन है, वह जैनशासन के अनुरूप कैसे माना जा सकता है?
द्वादशांगी-श्रुत में ‘प्राणावाय’ नामक प्रकरण में मुनियों के लिये शारीरिक स्वास्थ्य-संबंधी जानकारी के लिये कई सूचनायें दीं गयीं हैं, जिन्हें जानकर मुनिराज अपने स्वास्थ्य एवं परिस्थितियों के अनुकूल भोजन ग्रहण कर लेते हैं, और उनका उद्दिष्ट-त्याग का नियम भी नहीं टूटता है तथा श्रावक के यहाँ जो भी आहार बना होता है, उसीमें से पथ्यरूप-पदार्थों का ग्रहण करके मुनिराज शारीरिक विषमता के बिना अपनी धर्मसाधना बिना किसी विघ्नबाधा के कर सकते हैं। यह मात्र मुनिधर्म के लिये होता है और उन्हीं की मर्यादा के अनुसार ही इसमें जानकारी होती है।
बाद में आचार्य समन्तभद्र स्वामी, आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि, आचार्य उग्रादित्य आदि ने सामान्य-श्रावकों के लिये भी आरोग्य-परक मार्गदर्शन-वाले ग्रन्थ लिखे। इनमें से प्रथम दोनों आचार्यों के ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, मात्र आचार्य उग्रादित्य का ग्रन्थ ही उपलब्ध है। परन्तु यह भी कोई आयुर्वेद का ग्रन्थ नहीं है, हाँ तत्संबंधित कुछ सामग्री इसमें अवश्य है। प्राकृतिक-चिकित्सा के नाम पर कोई बाहरी-प्रक्रिया जिनवाणी में नहीं बतायी गयी है। हाँ, जो सामयिक, प्रतिक्रमण व आलोचना जैसी आध्यात्मिक-प्रक्रियायें जिनाम्नाय में नित्यकर्म के रूप में प्रचलित हैं, वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को समुन्नत बनानेवाली अत्यन्त वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक प्रक्रियायें हैं। किन्तु वे तथाकथित आधुनिक प्राकृतिक-चिकित्सा के अन्तर्गत नहीं आ सकतीं हैं। और इनमें भी गृहीत-मिथ्यात्व की शैली में कहीं कुछ भी नहीं होता है। भक्तियाँ आदि इनके अंग हैं, किन्तु वे आधुनिक-कल्पनाओं से परे अत्यन्त आध्यात्मिक-भावभूमि की भूमिकायें हैं, जिनमें कर्तावाद एवं याचनाविधि को कोई स्थान नहीं होता है।
इनके अलावा सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि धार्मिक-अन्धविश्वास को बढ़ानेवाली कोई भी बात इसमें नहीं की गयी है और न ही जिनेन्द्र देव की पूजा-अर्चना के निमित्त से स्वास्थ्य का इलाज बताकर इसमें कहीं भी गृहीत-मिथ्यात्व का पोषण है। जैनाचार्य ऐसा कर ही नहीं सकते हैं। और जो करें, वे जैनाचार्य नहीं हो सकते हैं।
तथा निष्कामभाव से की गयी जिनेन्द्र देव की पूजा-अर्चना, स्तुति-पाठ आदि से पुण्यबंध हो और उसका उदय होने पर पापकर्मोदय से हुये रोगादि का निवारण हो-- इस पर तो मैंने कहीं भी कोई आपत्ति नहीं जतायी गयी है।
किन्तु जिनेन्द्र देव की पूजा-अर्चना, स्तुति-पाठ आदि को रोगादि को ठीक करने की वासना के साथ याची बनकर करना – इसे गृहीत-मिथ्यात्व जैन-दार्शनिक सिद्धांत के अन्तर्गत कहा गया है। यह अकाट्य एवं शाश्वत-सत्य है।
तथा इस तथ्य का आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा के किसी प्रकल्प से क्या संबंध है? जो इस सैद्धान्तिक-प्ररूपण को इससे प्रश्नचिह्नित किया गया है?
बात जिनवाणी के सिद्धांत के आधार पर प्रस्तुत की गयी है, तो उसका यदि कोई अन्यपक्ष के रूप में प्रस्तुतीकरण हो, तो वह जिनवाणी के सिद्धान्तों के आधार पर ही किया जाये, न कि अन्य किसी लौकिक-पद्धति के आधार पर भ्रामक-स्थिति उत्पन्न की जाये।
मैं 100% दृढ़ता के साथ पुनः यही कहूँगा कि जिनाम्नाय में वीतरागी देव-गुरु-धर्म की पूजा-अर्चना, स्तुति-पाठ आदि क्रियायें यदि किसी भी तरह की लौकिक-वासना/कामना आदि के रूप में की जातीं हैं, तो वह एकमात्र गृहीत-मिथ्यात्व की ही रूप हैं, भक्ति या विनय नहीं।
ज्ञातव्य है कि ‘विनय’ नाम का एक मिथ्यात्व-भेद भी है। इसके अन्तर्गत वीतरागी जिनेन्द्र देव की स्तुति आदि के बदले लौकिक-कामनायें की जातीं हैं, अतः इसे ‘विनय-मिथ्यात्व’ कहा गया है।
केवल विरोध के लिये कुछ भी विषयान्तरित-प्रमाण के रूप में कहना, यह उचित नहीं है। और गृहीत-मिथ्यात्व के रूप में जो कुछ जिनवाणी में स्पष्ट प्रतिपादित है, उसका विरोध करना या घुमा-फिराकर उसतरह की भावना का समर्थन करना अपनेआप में गृहीत-मिथ्यात्व का समर्थन एवं जिनशासन का विरोध करना है।
निष्कर्ष :– वीतरागी जिनाम्नाय में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता-हर्त्ता नहीं है। हम वीतरागी जिनेन्द्र देव की स्तुति/भक्ति/विनय/पूजा-पाठ आदि जो भी करते हैं, वह तभी सार्थक है, जब उसे निष्कामभाव से मात्र गुणानुवाद के रूप में किया जाये, न कि याचक बनकर और भगवान् को रागी-द्वेषी और कर्त्ता मानकर। अन्यथा हमारी सारी स्तुति/भक्ति/विनय/पूजा-पाठ आदि गृहीत-मिथ्यात्व का ही पोषण करेगी, न कि मोक्षमार्ग की पूर्वभूमिका बन सकेंगीं।
(यह आलेख कुछ ज्यादा लंबा तो हो गया है, इसीलिये मैंने इसे बीच-बीच में दो जगह वर्गीकृत करने का प्रयास किया है। परन्तु पूरी बात न कहने का दुष्परिणाम यह होता है कि लोग पूरी बात को समझने का धैर्य रखे बिना अनेकों भ्रामक बातें उपस्थित करते हैं। इसीलिये वर्ण्य-विषय को एकसाथ ही दिया है। कृपया धैर्य से पढ़ें।)
संपर्क दूरभाष :8750332266
#####*********#####