गृहीत मिथ्यात्व संबंधित

आपका कहना सही हैं। कोई क्रिया का नाम ग्रहित और अग्रहित नहीं हैं। और कोई भी क्रिया निर्दोष हो वह की जा सकती हैं।
वस्तुतः मिथ्यात्व तो एक ही हैं –वस्तु स्वरूप के प्रति भ्रम। वस्तु स्वरूप भी नाना प्रकार से कथन में आता हैं, अतः मिथ्यात्व भी उन उन प्रकार से भिन्न भिन्न कथन में आता हैं।
चुंकि संपूर्ण मिथ्यात्व “मैं आत्मा हूं” इस श्रद्धान से नाश हो जाता हैं, और उस आत्मा का स्वरूप सात तत्व से जाना जाता हैं, जिसका अनादि से जीव को परिचय नही हैं / भ्रम हैं, वह अग्रहित मिथ्यात्व हैं।
और जो उसको पोषित करे, वह ग्रहित मिथ्यात्व हैं।
किसी क्रिया से पोषण हो रहा हैं या नहीं हो रहा हैं, यह इस बात पर निर्भर करता हैं की उस क्रिया में आप कितने जुड़े हैं या आपकी उसके प्रति क्या सोच हैं।
कोई भी क्रिया या मान्यता, यदि आपको जैन सिद्धांतो/वस्तु स्वरूप से दूर करती हैं या दूर करने के लिए प्रेरित करती हैं, तो वह ग्रहित मिथ्यात्व में आयेगी।

इन तीन के अलावा और कोई कारण नहीं है। यदि कुछ जोड़ा जाए (कुतत्त्व, कुमंगल, कूत्तम, कुशरण आदि) सभी इनमें ही समाहित ही हैं।

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