उपयोग के सम्बन्ध में कुछ जिज्ञासाएँ

दर्शनोपयोग प्रमाण या अप्रमाण
प्रामाण्य - दर्शनोपयोग या ज्ञानोपयोग

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जैन प्रमाण मीमांसा में दर्शनोपयोग (निश्चयात्मक) को व्यवसायात्मक नहीं होने से प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकारा गया है।
शायद इसीलिए उसके सम्यक और मिथ्या होने की भी कोई बात जिनागम में प्राप्त नहीं होती।

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धवलाजी उसे व्यवसायात्मक मानता है। और उसे समझाने के लिए कहता है कि दर्शन भी प्रयत्नशील होता है।

दर्शन मात्र सत्ता सामान्य को निराकार ग्रहण करता है इसलिए सम्यक-मिथ्या का भेद नहीं किया गया है न कि अप्रमाण होने से।

यदि कोई वस्तु निश्चित रूप से अप्रमाण है तो वह मिथ्या ही होनी चाहिए।

दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के सम्बंध में जो उल्लेख आगम में प्राप्त होते हैं उनके कारण इनकी विषय वस्तु जटिलता को प्राप्त हो गयी है, दर्शनोपयोग के सम्बंध में निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त होते हैं-
  • सामान्य अवलोकन रूप
  • अनाकर रूप
  • अंतर्मुख चित्प्रकाश ग्राही
  • सामान्य ग्राही
  • स्व ग्राही
  • कथंचित बाह्य पदार्थ ग्राही

ज्ञानोपयोग के सम्बंध में निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त होते हैं -

  • विशेष ग्राही
  • साकार रूप
  • बहिर्मुख चित्‍प्रकाश ग्राही
  • स्वपर ग्राही
  • मात्र पर ग्राही
इन सभी व्याख्याओं के अलावा भी दर्शन और ज्ञान के सम्बंध में समन्वय सूचक उल्लेख हैं जिनसे इनकी विषय वस्तु अधिक स्पष्ट होती है, दर्शन को मात्र सामान्य ग्राही और ज्ञान को मात्र विशेष ग्राही ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि सामान्‍य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्‍तु रूप पड़ता है।
धवलाकार के अनुसार दर्शन और ज्ञान दोनों ही सामान्य और विशेष ग्राही होते हैं, उनके अनुसार सामान्‍य विशेषात्‍मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है और सामान्‍य विशेषात्‍मक स्‍वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है।
नियमसार गाथा 161 से 171 तक दर्शन और ज्ञान का समन्वय प्रस्तुत किया गया है जिसमें दोनों को नय विवक्षा से परप्रकाशक और स्वप्रकाशक दोनों रूप सिद्ध किया है, मूल कथन तो वहीं से पठनीय है, कुछ महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार है- ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय की अथवा दर्शन-द्रष्‍टा-दृश्‍य की भेद‍ विवक्षा होने पर तीनों ही परप्रकाशक हैं तथा उन्‍हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्‍टा है और वही दृश्‍य है। अत: ये तीनों ही स्‍वप्रकाशक हैं।
उपर्युक्त प्रमाणों के आधार से तो दर्शनोपयोग को प्रमाण रूप से स्वीकारने में कोई आपत्ति दिखायी नहीं देती।
किन्तु,

:radio_button: यदि दर्शनोपयोग को प्रमाण रूप से स्वीकार कर लिया जाएगा तो निर्विकल्पक ज्ञान की अवस्था जिसे की हम दर्शन कहते हैं वह निर्विकल्प रूप नहीं रहेगी।

:radio_button: अन्य मतों में जैसे कि बौद्ध मत निर्विकल्प ज्ञान को भी प्रमाण स्वीकार करते हैं और हम उनका खण्डन इस आधार पर करते हैं कि जो स्वयं ही निर्विकल्पक है वह निश्चायक/ निश्चयात्मक कैसे हो सकता है? अतः अन्य मत के खण्डन का न ही तो तर्क मिलेगा साथ ही साथ उनका मत भी प्रामाणिक और हमारे तर्क अप्रामाणिक सिद्ध होंगे।

:radio_button: न्याय में सर्वत्र ज्ञान को ही प्रमाण रूप से प्रस्तुत किया गया है जैसे कि परिक्षामुख, न्यायदीपिका आदि।

:radio_button: यदि दर्शन भी ज्ञान के समान ही प्रमाण है तो ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है? प्रामाण्य के लिए हैं ऐसा कहेंगे तो दर्शन से जब प्रमाण हो सकता है तो उससे ही प्रामाण्य क्यों नहीं हो सकता?
सुधार अपेक्षित है।
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मेरे प्रश्नों को सविस्तार प्रस्तुत करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद!

न्याय में बताए गए प्रमाण एवं आगम में बताए गए प्रमाण में बहुत अन्तर है। तथापि,

न्याय में प्रयुक्त प्रमाण
यह मात्र लाक्षणिक रूप से सिद्ध हो सकने वाले प्रमाण को ही संगृहीत करता है। अतः दर्शन छद्मस्थ-अग्राह्य होने से प्रमाणाप्रमाण-अतीत है।

आगम में प्रयुक्त प्रमाण
प्रमाण, नय और निक्षेप - ये भेद ज्ञानोपयोग-ग्राह्य ही होते हैं। अतः दर्शनोपयोग प्रमाणाप्रमाण-अतीत है।

रही बात प्रामाण्य की तो,
यह मात्र प्रमाण के अव्यभिचारित्व का अविनाभावि होने से ज्ञान का सहभागी ही है।

दर्शन, ज्ञान और उपयोग के संदर्भ में कुछ कथन:

उपयोग की परिभाषा:- चेतना के व्यापार (व्यवसाय) को उपयोग कहते हैं। चेतना अर्थात प्रतिभास । चेतना के दो रूप, दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना। दर्शनचेतनारूप व्यापार को दर्शनोपयोग और ज्ञानचेतनारूप व्यापार को ज्ञानोपयोग कहते हैं |

दर्शन चेतना की परिभाषा: सामान्य प्रतिभास को दर्शन चेतना कहते हैं। यहाँ, सामान्य का अर्थ निर्विकल्पता से हैं। निर्विकल्पता का अर्थ अभेद रुपता (अनाकार/ निराकार) से हैं।

ज्ञान चेतना की परिभाषा: विशेष प्रतिभास को ज्ञान चेतना कहते हैं। यहाँ, विशेष का अर्थ विकल्पता से हैं। विकल्पता का अर्थ भेद रुपता (साकार) से हैं।

लोक में दर्शन शब्द, देखने के लिए रूढ़ हैं। और ज्ञान शब्द, जानने के लिए रूढ़ है। पर दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना दोनों से जाना भी जाता हैं और देखा भी जाता हैं। इसके लिए कॉमन शब्द हैं प्रतिभास। प्रतिभास के पर्यायवाची नाम: अवलोकन करना, जानना, देखना, ग्रहण करना इत्यादि हैं|

यहाँ, दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना दोनों उपयोग के भेद होने से व्यवसायात्मक हैं। दर्शनोपयोग भी व्यवसायात्मक और ज्ञानोपयोग भी व्यवसायात्मक हैं। आगे, दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना, दोनों के द्वारा पदार्थ का ग्रहण होता हैं, इसलिए दोनों ही स्व-परप्रकाशी हैं । दर्शनोपयोग से सामान्यरूप से (निर्विकल्परूप से ) स्व-पर का प्रतिभास होता हैं और ज्ञानोपयोग से विशेष रूप से (विकल्परूप से ) स्व-पर का प्रतिभास होता हैं। दर्शनोपयोग को स्व-प्रकाशी और ज्ञानोपयोग को पर-प्रकाशी कहना किसी अपेक्षा विशेष से हैं, मूल में दोनों हो स्व-परप्रकाशी हैं।

अंत में, दर्शन चेतना और ज्ञान चेतना दोनों ही स्वयं में पदार्थ होने से दोनों ही सामान्य-विशेषात्मक हैं। दर्शन चेतना स्वयं में सामान्य-विशेषात्मक हैं , और वह पदार्थ के सामान्य स्वरुप को ग्रहण करती हैं , ज्ञान चेतना स्वयं में सामान्य-विशेषात्मक हैं , और वह पदार्थ के विशेष स्वरुप को ग्रहण करती हैं । (परमात्म पुराण में आया हैं)

यहाँ, यह प्रश्न हो सकता हैं की जब ज्ञान चेतना से ही जानना हो रहा हैं तो दर्शन चेतना की क्या उपयोगिता हैं? इसी प्रश्न को ऐसा भी कहा जा सकता हैं जब केवलज्ञान हैं तो केवलदर्शन की क्या उपयोगिता हैं?

मेरा विचार हैं की, दर्शन चेतना से भी प्रतिभास (सामान्य) होता है और ज्ञान चेतना से भी प्रतिभास (विशेष) होता हैं। प्रतिभास का अर्थ पदार्थ के स्वरुप को ग्रहण करना। चूँकि सभी पदार्थ सामान्य और विशेष रूप हैं| पदार्थ सामान्य और विशेष रूप होने से उसको जानने वाला साधन भी सामान्य और विशेष रूप को ग्रहण करने वाला होना चाहिए। इसलिए, पदार्थ के सामान्य स्वरुप को ग्रहण करना दर्शन चेतना का कार्य हैं और पदार्थ के विशेष स्वरुप को ग्रहण करना ज्ञान चेतना का कार्य हैं। इसलिए, केवलदर्शन में सभी पदार्थ की सामान्य सत्ता का ग्रहण होता हैं और केवल ज्ञान में सभी पदार्थ की विशेष सत्ता का ग्रहण होता हैं। (इस प्रश्न पर आपके विचार भी अपेक्षित हैं की दर्शन और ज्ञान दो गुण क्यों कहे हैं? मेरा विचार में पदार्थ के दो रूप (सामान्य और विशेष), होने से उनका साधन रूप प्रतिभास भी दो रूप (सामान्य और विशेष) होना चाहिए |

प्रमाण/अप्रमाण:- प्रमाण अर्थात प्रकृष्ट रूप से ज्ञान, सम्यक ज्ञानं प्रमाणं, इसलिए ज्ञान को ही प्रमाण कहने पर, अन्य सब (जैसे दर्शन, प्रकाश आदि) अप्रमाण हैं, अर्थात प्रकृष्ट ज्ञान रूप नहीं हैं। एक ऐसा दार्शनिक मत भी हैं, जो निर्विकल्प ज्ञान को प्रमाण मानता हैं, इसलिए वहां ( शायद प्रमेयकमलमार्तंड में ) में उसे अप्रमाण बताया हैं।

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क्या प्रमाण से बाहर सब कुछ अप्रमाण है?
यदि ऐसा है तो मिथ्याज्ञानात्मक अप्रमाण और दर्शनोपयोगात्मक अप्रमाण में कोई अन्तर कैसे करेंगे?

साथ ही प्रमाण में प्रमाणता सम्यकता के कारण से है या ज्ञानत्व के कारण से है? यदि सम्यकता के कारण से मानते हो तो मिथ्या ज्ञान अप्रमाण हुआ न कि दर्शनोपयोग! यदि ज्ञानत्व के कारण मानते हो तो या तो सम्यक विशेषण निरर्थक होगा या मिथ्याज्ञान जैसी कोई चीज़ नहीं होगी।

मिथ्याज्ञान अप्रमाण -
एक चित्र होता है जिसमे हाथी को एक ने पैर से पकड़ लिया और मान लिया कि यही हाथी है,किसी ने पूंछ से पकड़ कर मान लिया,किसी ने सूंढ़ से पकड़ कर मान लिया,परंतु समग्र रूप से हाथी को प्रमाण रूप से नही जानता और एक ही नय को पकड़ कर सर्वथा मान लिया।

जैसे चर्वकमत वाले ने 1 ले और 2 नय को सर्वथा प्रमाण रूप मान लिया,
बौद्ध वाले ने 1,2,3,4 नय को सवर्था प्रमाण मान लिया और उसमें भी 3 और 4 थे नय का ठिकाना नही है मानने में।

कुलमिलाकर मिथ्यत्व में कुछ नय को पकड़ कर प्रमाण मान लिया।

दर्शनोपयोग अप्रमाण - वस्तुस्वरूप की स्पष्टता नही होने के कारण वह अप्रमाण है।

प्रमाण में सम्यक्त्व के कारण से मानेगे।
क्योंकी मिथ्यज्ञान और दर्शनोपयोग दोनों ही अप्रमाण है।

इसमे कुछ गलती हो तो कृपया बताये।

आपने जो कहा उससे शंका का समाधान नहीं हुआ!
यदि दर्शनोपयोग अप्रमाण है तो उसमें सामान्य-विशेषात्मकता कैसे पाई जाती है।

प्रमाण -अप्रमाण से अतीत तो वादी-प्रतिवादी दोनों को ही अभीष्ट होना चाहिए। अतः प्रतिवादी जब दर्शनोपयोग को प्रमाण मानते हैं (जैसे की बौद्ध मत निर्विकल्प ज्ञान को अर्थात दर्शन को प्रमाण मानते हैं), तो वह वादी को भी प्रमाण या अप्रमाण की कोटि में रखना होगा।

यहाँ, दर्शनोपयोग भी पदार्थ का ग्रहण करता हैं जैसे की प्रमाण भी पदार्थ का ग्रहण करता हैं, अतः उसे सर्वथा प्रमाण -अप्रमाण से अतीत नहीं कहा जा सकता हैं।

यहाँ, प्रमाण से अर्थ की संसिद्धि होती हैं और ऐसे प्रमाण का स्वरुप “स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं” होता हैं, इस न्याय से अप्रमाण अनेक तरह के होते हैं, जैसे की प्रकाश, मिथ्याज्ञान, धारावाही ज्ञान आदि। इन अप्रमाणो के अप्रामाणिकता के अपने-अपने कारण हैं, ठीक उसी तरह मिथ्याज्ञानात्मक अप्रमाण (अनिश्चयात्मक होने से ) और दर्शनोपयोगात्मक अप्रमाण (बौद्ध के निर्विकल्प ज्ञान की तरह अनिश्चयात्मक होने से और ज्ञान रूप नहीं होने से ) में भी अंतर होगा।

यहाँ, प्रमाण में प्रमाणिकता के पांच लक्षण चाहिए जो की इस सूत्र में “स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं” बताये हैं, इसलिए प्रमाण का सम्यकरूप भी होना चाहिए और ज्ञान रूप भी होना चाहिए। एक भी लक्षण के अभाव में वह प्रमाण रूप नहीं होगा।

दर्शनोपयोग विशेषात्मकता के लिए पुष्टि करता है उत्कृष्ट निमित्त बनता है विशेषात्मकता के लिए।इस अपेक्षा से सामान्य विशेषात्मकता कहा परंतु ज्ञान के समान वस्तु को प्रमाण रूप नही जान सकता ।
प्रत्यक्ष रूप में दर्शनोपयोग से जीव मोक्षमार्ग में आगे नही बढ़ सकता।सम्यकदर्शन, ज्ञान ,चरित्र कुछ भी नही होता वस्तु स्वरूप का यथार्थ ख्याल ही नही आता प्रमाण स्वरूप जीव की निर्विकल्प अनुभूति ज्ञान के माध्यम से ही होती है।
इस अपेक्षा से दर्शोंपयोग अप्रमाण भी है और सामान्य विशेषात्मकता रूप है।

ज्ञान तो सदा सविकल्प ही होता है और दर्शन निर्विकल्प।

आप कृपया ऊपर @anubhav_jain जी का reply पढ़ें,और धवला के दर्शनोपयोग को सामान्य-विशेषात्मक कहना का कारण पढ़ें।

साथ ही आपके प्रस्तुतिकरण से भी यह स्पष्ट ही है कि मिथ्याज्ञान जिसप्रकार का अप्रमाण है, उसी प्रकार का अप्रमाण दर्शनोपयोग कैसे हो सकता है?

साथ ही मिथ्याज्ञान के पूर्व पाए जाने वाले दर्शनोपयोग में और सम्यग्ज्ञान के पूर्व पाए जाने वाले दर्शनोपयोग में भी अन्तर ही है… यदि दर्शनोपयोग सर्वथा अप्रमाण है तो उसके उपरान्त होने वाला ज्ञानोपयोग कैसे प्रमाण हो गया?

आपसे विनम्र निवेदन है कि कृपया विषय पर सर्वांगीण रूप से पुनर्विचार करें। और ऊपर भेजे गए सभी replies को फिर पढ़ें।
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