कार्य-शुद्ध-पर्याय एवं कारण-शुद्ध-पर्याय

कार्य-शुद्ध-पर्याय एवं कारण-शुद्ध-पर्याय का क्या अर्थ है और ये शब्द किस ग्रंथ से लिये गए हैं?

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Sorry for being late.

कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय
नि. सा./ता. वृ. १५ स्वभावविभावपर्य्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते। कारणशुद्धपर्य्यायः कार्यशुद्धपर्य्यायश्चेति। = स्वभाव पर्यायों व विभाव पर्यायों के बीच प्रथम स्वभाव पर्याय दो प्रकार से कही जाती है - कारण शुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय।

कारण व कार्य शुद्ध पर्याय के लक्षण
नि.सा./ता.वृ./१५ इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्ता-तीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शन-सहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः। साद्यतिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवल-सुखकेवलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन सार्द्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्य्यायश्च।

सहज शुद्ध निश्चय से, अनादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व रूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टय का स्वरूप उसके साथ की जो पूजित पंचम भाव परिणति वही कारण शुद्धपर्याय है।

सादि-अनन्त, अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टय के साथ की परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव की जो शुद्ध परिणति वही कार्य शुद्ध पर्याय है

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अर्थात् कार्यशुद्धपर्याय - क्षायिकभाव होने से कर्मोपधि सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय और सादिनित्य पर्यायार्थिक नय का विषय है।

और कारणशुद्धपर्याय - पारिणामिक भाव होने पर भी उत्पाद-व्यय निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय और कर्मोपधि-निरपेक्ष-अनित्य-शुद्धपर्यायार्थिक का विषय है।

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इन दोनों का थोड़ा और खुलासा कर दीजिए।

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भाई! शब्द स्वयं स्व-वाचक हैं, फिर भी इतना समझ लीजिए कि कारण शुद्ध पर्याय - पर्याय होते हुए भी उसमें पर्याय के एक भी लच्छन नहीं हैं।

पर्याय का सामान्य से लक्षण होता है उत्पाद-व्यय रूप होना, किन्तु यह विशिष्ट पर्याय है जो द्रव्यार्थिक नय से देखने पर उत्पाद-व्यय से रहित द्रव्य में सम्मिलित ही प्रतीत होती है और जो पर्यायार्थिक नय से देखने पर कर्मोपधि से रहित (चूँकि पारिणामिक है), उत्पाद-व्यय-अग्राही एवं सत्ता निरपेक्ष होती है।

  • यह पर्याय की ऐसी योग्यता है जो शुद्ध पर्याय को जन्म देती है।
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कारणशुद्धपर्याय
चर्चा क्रमांक ०१

यहाँ श्री नियमसार जी परमागम के आधार से ‘कारणशुद्धपर्याय’ पर चर्चा करते है। यहाँ पर सबसे पहले जीव का कर्तव्य क्या है ? यह विचारते है। आजतक यह जीव परद्रव्यों में तथा कर्मोदय जनित परभावों में ही अपनत्व करता आ रहा है। वह घर-स्त्री-पुत्र-कुटुंब-धन आदि यह सब मेरे है , मैं इनका हित-अहित करनेवाला हूँ। आजतक यही विचारधारा इस जीव की रही है। जो राग-द्वेष का परिणाम है , वह मेरा है , मैं ही इसे करता हूँ तथा मैं ही इसे भोगता हूं। जीव का जो ऐसा चिंतन अथवा ऐसी मान्यता है , वह उसका कर्तव्य नहीं है। तब फिर यह प्रश्न उठता है कि जीव का आखिरकार कर्तव्य क्या है ? तब इसके उत्तर स्वरूप छहढाला जी में पंडित दौलतराम जी कहतें है - “यह राग-आग दहै सदा,तातैं समामृत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो,त्याग निज-पद बेइये।। कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दु:ख सहै। अब ‘दौल’ होऊ सुखी स्व-पद रचि दाव मत चूको यहै।।” इन पंक्तियों के माध्यम से वह कहतें है कि जो रागरूपी आग है , उसमें यह जीव अनादिकाल से झुलसता आ रहा है। तथा सदा ही इसने भोगों में रुचि रखी , इसलिये यह उन्हें ही भजता है। इसलिए यह सुखासाधन नही है , क्योंकि यह दुःख देनेवाले है। और दुःख को प्राप्त करना , यह कभी भी जीव का कर्तव्य नही हो सकता। इसलिए जीव का कर्तव्य तो वीतराग भावरूपी अमृत की प्राप्ति अपने सहज आत्मस्वरूप को पाना है। इसतरह सहज ही यह समझ मे आ जाता है कि जो शुद्धरत्नत्रय है , वह जीव का कर्तव्य है। यह विषय-कषाय जीव का कर्तव्य नही है। तब यह शुद्धरत्नत्रय कैसे प्रगट हो अथवा दूसरी तरह कहे तो शुद्ध रत्नत्रय रूपी कार्य के लिए वास्तविक कारण क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कोई भी बाह्य निमित्त आदि से सापेक्ष कारण शुद्ध रत्नत्रय का कारण नही हो सकता। आगम का यह वचन समस्त पराधीनता को छुड़ाने वाला है क्योंकि अनादि मिथ्यात्व के वशीभूत जीव तो यही विचारता है कि जो देव-शास्त्र-गुरू है , वह मुझे मोक्ष देनेवाले है। लेकिन नही भाई , वह देव-शास्त्र-गुरू भी तुझे मोक्ष नही दिलवा सकते। कितना ही व्रत-संयम हो , शास्त्र पाठ हो - यह सब मोक्ष नही दिलवा सकता। इसलिए शुद्ध रत्नत्रय कहीं बाहर से नही मिलता। अतः बाहर शुद्ध रत्नत्रय कही नही मिलता। उस मोक्षमार्ग का कारण तो अपने अंतरंग में ही विराजमान है , तथा वह क्या है ? जो शुद्धज्ञानचेतना परिणाम है। वह ही मोक्ष का असली कारण है। वह मोक्ष कैसे हो ? जब समस्त कर्मों की सत्ता निजात्मा से दूर हो। तो भाई ! समस्त कर्मों की सत्ता किसी बाह्य क्रियाकांड से , पूजन-अर्चन से दूर नही होगी। जब यह जीव अपने निज परमपारिणामिक भाव में आश्रय ले , उसमें स्थित अनन्तचतुष्टय की यथार्थ प्रतीति करे , स्वयं को बस एक ज्ञायकभाव मात्र जाने , तभी वह जीव मोक्ष को पाता है। इसप्रकार पर्यायचक्षु को खोलकर औदयिक भावों में रुचि रखने से अपना कार्य होता नही दिखता क्योंकि जबतक निजनाथ की महिमा पहचानी ही नही तबतक उसकी प्राप्ति का प्रसंग कैसे बने ? बाह्य में तो कर्म बहुत सी लीला रचा रहे है , किन्तु अंतरंग में तो अनन्तचतुष्टय ऐसा का ऐसा ही है क्योंकि अन्य सभी भाव तो त्रिकाली नही है। किन्तु अपना एक परम पारिणामिक भाव - वह तो त्रिकाली है। वह कभी हिला नही , हीनाधिकता को प्राप्त नही हुआ। सदा टंकोत्कीर्ण बना रहा है। वह तो सदा अनन्त ज्ञान , अनन्त दर्शन , अनन्त सुख एवं अनन्त वीर्य स्वरूप है।

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कारणशुद्धपर्याय
चर्चा क्रमांक ०२

पिछली चर्चा में यह बात आई थी कि जो शुद्धज्ञानचेतना परिणाम है , वह ही सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्र की प्राप्ति करवाता है। यहाँ थोड़ा शुद्धज्ञानचेतना परिणाम को ही विस्तार देते है , यहाँ जो ‘परिणाम’ शब्द है उसका अर्थ उत्पाद-व्यय को प्राप्त होनेवाली पर्याय नही है क्योंकि यह शुद्धज्ञानचेतना पर्यायार्थिक नय का विषय नही है। यह शुद्धज्ञानचेतना तो द्रव्यार्थिक नय का विषय है , जो समस्त पर्याय के व्यापार से निरपेक्ष है क्योंकि यह शुद्धज्ञानचेतना कभी जीव में उत्पन्न हुई हो , पहले नही थी - ऐसा नही है। तथा कभी यह आगे नाश को प्राप्त हो जाएगी , बाद में नही रहेगी - ऐसा भी नही है। यह तो सदा से है तथा सदा ही रहेगी। क्योंकि द्रव्य और उसके गुणधर्म , वह तो सदा ही स्थिति को प्राप्त है। वह तो कभी च्युत हो ही नही सकते। वह च्युत हो जाए तो वस्तु ही कहाँ बचे ? देखो ! यहाँ जो पर्याय में प्रकट होनेवाला केवलज्ञान है , शुद्धज्ञानचेतना परिणाम कहने से उस केवलज्ञान की बात नही हुई। क्योंकि वह जो केवलज्ञान की पर्याय है , वह भी तो क्षणिक ही है। एकसमय मात्र के काल वाली है। उस एक समय की पर्याय में निज शुद्धद्रव्य की महिमा उसीप्रकार गर्भित नही हो सकती , जिसप्रकार एक तरंग मात्र में समुद्र नही समा सकता। क्योंकि तरंग कभी समुद्र नही होती , न कभी समुद्र तरंग रूप होता। वैसे ही यह द्रव्य और पर्याय भी कभी एक-दूसरे के रूप नही हो सकते। उस क्षणिक पर्याय के आश्रय से तो अपना शुद्धज्ञानचेतना परिणाम नही जानने में आता। क्योंकि केवलज्ञान की अनन्त पर्याये व्यतीत होने पर भी अपने द्रव्य से उसका कोई मुकाबला नही है।तथा एक बिंदु यह भी है कि केवलज्ञान की पर्याय तो क्षायिक अनंत चतुष्टय से प्रकट हुई है जबकि अपना जो सहज शुद्धज्ञानचेतना परिणाम है वह तो त्रिकाल ही अनंत ज्ञानादि स्वरूप है।अपने द्रव्य को उस क्षायिक अनंत चतुष्टय के आश्रय की भी कोई दरकार नही है। मोक्षार्थी जीव को तो सहज स्वरूप में ही साम्यभाव होता है , उन्हें व्यवहार रत्नत्रय के पालन का भी कोई भाव नही होता। क्योंकि वह व्यवहार रत्नत्रय भी बन्ध का मार्ग है , मोक्षमार्ग तो निश्चय रत्नत्रय के ही आश्रय से होगा। जैसा पूज्य गुरूदेव श्री कहतें है कि भाई ! आवश्यक तो एक ही है , छह नही। अब यहाँ कोई कहता है कि जब अपना परम पारिणामिक भाव तो त्रिकाल उपस्थित है तो फिर यह निश्चय रत्नत्रय प्रगटा क्यों नही ? तो कहते है कि भाई ! यद्यपि अपना परम पारिणामिक भाव त्रिकाल उपस्थित है लेकिन उसका आश्रय इस जीव के जबतक नही होता , तबतक निश्चय रत्नत्रय नही प्रगटता। देखो ! यह जीव अनन्तकाल तक निगोद में पड़ा रहा , इसे वहाँ अपने आत्मा की सुध कहाँ थी ? ऐसे ही बहुत सा काल विकलेन्द्रिय में भी बिताया। पुण्यवश मनुष्यादि भी हुआ तब भी यह जीव तो स्वयं को देहादि रूप ही जानता रहा। वहाँ आत्मा की तो खबर ही नही थी , जब अपने द्रव्य की खबर ही नही तो निश्चय चारित्र कैसे प्रगट हो ? इसलिए जबतक परम पारिणामिक भाव को जाना नही , उसका यथार्थ विधि से श्रद्धान नही किया। तबतक निश्चय चारित्र नही प्रगटता। और जहाँ उस परमभाव मे आश्रय इस जीव ने लिया , वहाँ सहज ही निश्चय रत्नत्रय की उपलब्धि हो जाती है। अब नियमसार जी शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ? वह भी समझ आ जाता है। जो अपना शुद्धज्ञानचेतना परिणाम है , वह ही नियम है। इस ‘नियम’ शब्द के अर्थ का विस्तार 'सार" शब्द से हुआ है। जो अपना साररूप भाव है , जहाँ पर समस्त विपरीतता का परिहार है। वह ही ‘नियमसार’ - इस शब्द का मतलब है। वहाँ विपरीत भाव क्या जिसका परिहार किया ? जो सारे व्यवहार रत्नत्रय के पालन के विकल्प है , कर्म सापेक्ष परभाव है , वह सभी विपरीत भाव है। जिससे अपना भगवान आत्मा भिन्न है। इसलिए उस शुद्धात्मा के स्वरूप में उस शुद्धात्मा की प्राप्ति का जो विकल्प है - वह भी समाहित नही होता। मैं किसी का भला करूँ , दया-दान-व्रतादि करूँ , आत्मा की अनुभूति करूँ - जो भी यह कर्तापने के विकल्प है , भोक्तापने के विकल्प है। सब से अपना आत्मा भिन्न है। राग भिन्न है , आत्मा भिन्न है।

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कारणशुद्धपर्याय
चर्चा क्रमांक ०३

अब यहाँ कारणनियम एवं कार्यनियम पर थोड़ा प्रकाश डालते है। यदि हम लौकिक कार्यों का ही उदाहरण ले तो वहाँ सदैव हम कार्य के पीछे छुपे कारण का ही महत्व रखते है। जैसे यदि किसी व्यापारी को कोई धनलाभ हुआ तो वह अपने बुद्धिबल से किए गए व्यापार को ही उस धनलाभ में निमित्त स्वरूप जानता है। आगम में कारण के दो भेद किए है - उपादान कारण तथा निमित्त कारण। वहाँ अपना जो ज्ञानदर्शनचारित्र रूपी उत्तम कार्य , तो उसका कारण क्या है ? उसमें किसी बाह्य निमित्त आदि की अपेक्षा नही क्योंकि बाह्य निमित्तों से अपने अन्तरंग में कोई कार्य होता नही दिखता। तो उस ज्ञानदर्शनचारित्र रूपी कार्य मे तो जो शुद्धज्ञानचेतना परिणाम है , वह ही कारणस्वरूप है। इसप्रकार शुद्धज्ञानचेतना परिणाम ही कारणनियम है तथा उस कारणनियम के आश्रय से ही प्रगट ज्ञानदर्शनचारित्र रूपी कार्यनियम है। इसलिए भाई ! वह शुद्धरत्नत्रय कहीं बाहर से नही आएगा , अपने ही पंचमभाव के आश्रय से वह कार्यनियम प्रगटेगा। जिसे अपनी अंतरंग शक्ति का विश्वास ही नही , जो अपने कारणपरमात्मा का अनन्त बल ही नही जानता , वह तो बाहर ही सुख के लिए फिरेगा। जैसे मृग को अपने अंदर विराजमान कस्तूरी की खबर नही होती , किन्तु वह उसकी तलाश में पूरे वन में भटकता फिरता है। उसी प्रकार इस मिथ्यात्वमोहित जीव को भी अपने अंतरंग में विराजित परमात्मा की खबर नही , इसलिए वह अनन्त पंचपरावर्तन पूरे कर चुका तब भी उसे कहीं शांति नही मिली। क्योंकि सुख तो अपने कारणनियम स्वरूप भाव मे ही है , पराश्रित भाव तो केवल दुख का कारण है। यहाँ कार्यनियम एवं कारणनियम , इन दोनों पदों में ‘नियम’ शब्द की क्या महत्ता है ? वह विचारते है। जो अपना सहज परमपारिणामिक भाव जोकि समस्त विविधताओं से रहित है , वह नियम से/दृढ़ता से आश्रय लेने योग्य है , तथा वह शुद्धरत्नत्रय की उत्पत्ति में कारणस्वरूप है , इसलिए वह कारणनियम है। तथा वह शुद्धरत्नत्रय प्रयोजनस्वरूप है क्योंकि वह ही जीव को अतीन्द्रिय सुख देनेवाले है , एवं वह ही नियम से करने योग्य है इसलिए वह कार्यनियम है। इससे यह भी जान लेना चाहिए कि शुद्ध रत्नत्रय ही जीव को करने योग्य है , प्रयोजन स्वरूप है , अन्य कोई भी कार्य इस जीव को करने योग्य नही है। वह मेरे कुटुंबादि है , मैं उनका भला करनेवला हूँ - ऐसे विकल्प भी जीव के करने योग्य कार्य नही। बाह्य में व्यवहारचारित्र का जो पालन छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होता है , वह भी वास्तविक रूप से जीव के करने योग्य कार्य नही है। क्योंकि वह भी शुभकर्म के बंध का कारण है। एकमात्र परम पारिणामिक भाव का आश्रय - यह ही अबंध अवस्था का मार्ग है।

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कारणशुद्धपर्याय
चर्चा क्रमांक १४

देखो ! कारणशुद्धपर्याय की धारा तथा कर्म की धारा दोनों ही अनादि से चली आ रही है। लेकिन इन दोनों धाराओ ने कभी एकत्व नही किया। कभी भी पर्याय में आया विकार द्रव्य में नही प्रवेश कर पाया। द्रव्य तो त्रिकाल शुद्ध ही रहा है। लेकिन जब कारणशुद्धपर्याय का आश्रय इस जीव ने किया तब पर्याय में भी निर्मलता प्रगट हुई , आगमपद्धति छूट गयी। किंतु ऐसी स्थिति में भी यह नही कहा जा सकता कि वह परम पारिणामिक भाव पर्याय में आ गया क्योंकि कारणशुद्धपर्याय के आश्रय से प्रगट कार्यशुद्धपर्याय क्षायिकभाव स्वरूप ही है। तथा क्षायिकभाव एवं परम पारिणामिक भाव भी एकरूप नही है। इसपर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि भले ही कार्यशुद्धपर्याय की महिमा भी कम नही है। सिद्धदशा भी वंदनीय है , उपादेय है। परन्तु तब भी महिमा तो द्रव्यस्वभाव की ही बड़ी है , अनादि-अनन्त स्वरूप की ही बड़ी है न कि सादि-अनन्त की। अरे ! मुनि तो सिद्धदशा का भी विकल्प नही रखते , यदि विकल्प रखते तो निर्विकल्प ध्यान कैसे बनता ? जब कारणशुद्धपर्याय के आनन्द में वे डूबते चले गए तब कब में सिद्धत्व की प्राप्ति हो गयी ? इसकी उन्हें क्या खबर भी होती है ? वह तो परम समाधि स्वरूप में लीन हो जाते है। तथा श्री नियमसार जी गाथा १५ के अनुसार स्वभावपर्यायें दो प्रकार की है — कारणशुद्धपर्याय एवं कार्यशुद्धपर्याय। कारणशुद्धपर्याय तो पूजित पंचमभावपरिणति है तथा कार्यशुद्धपर्याय क्षायिकभाव परिणति है। तथा देखो ! अध्यात्मपद्धति एवं आगमपद्धति दोनों ही अनन्तता संयुक्त है। वह कैसे ? प्रथम तो यह कि जीव के विकारपरिणाम तथा पुद्गलकर्म दोनों ही अनन्त है तथा दूसरा यह आत्मा के गुण भी अनन्त है , इन दोनों की इस अनन्तता से ही अध्यात्मपद्धति और आगमपद्धति में अनन्तता कही गयी है।

isme jo karanshuddha paryaay ko dhruv ka vartmaan kehte hai wo spasht nahi hua aur ise paryay kyu bola? aur jab trikaal dravyaswabhav tha to ise khada hi kyu kiya?

आपके पोस्ट हेतु धन्यवाद!

लेकिन प्रश्न किस से है??? किसी पंक्ति पर है?

sorry yaaha nahi kaha hai par in general kehte hai me uske liye poochh rha tha

आपकी जिज्ञासाएँ आत्मार्थी-जिज्ञासु की अनुभव-ज्ञान मिमांसा की पराकाष्ठा हैं।

उत्तर 1 - जब आत्मानुभव की दशा में कारणशुद्धपर्याय को आश्रयभूत उपादेय के रूप में देखा जाता है, तब ध्रुव का वर्तमान कहना बनता है।

उत्तर 2 - सदा परिणामित शुद्ध द्रव्य को इंगित करने से इसे पर्याय नाम मिला होना चाहिए।

उत्तर 3 - द्रव्य-स्वभाव, ध्रौव्य, दृष्टि का विषय, कारणशुद्धपर्याय - ये पर्यायवाची हैं, एक शुद्धात्म स्वभाव को ही बतला रहे हैं। जब अनुभूति की दशा समझानी होती है तो द्रव्य को व्यवहार नय से विभक्त करके बताना होता है, तब ही समझने-समझाने का कार्य सम्भव होगा।

प्रमाण विवक्षा से द्रव्य ही द्रव्य का आश्रय ले रहा है।
नय विवक्षा से पर्याय ने द्रव्य का आश्रय लिया।

Open for discussions/clarifications/rework.

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The discussion is too long. Couldn’t read the whole thing. However last two lines captured my attention and wish to rephrase it.

भेदनय विवक्षा से पर्याय ने द्रव्य का आश्रय लिया।
अभेदनय विवक्षा से आश्रय-आश्रयी का भेद नहीं।
प्रमाण से आश्रय-आश्रयी भेदाभेद है।

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दोनों ही भंग सही हैं।

प्रमाण - द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक
प्रमाण - भेद-अभेद

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