काल, धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य | धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य की जरुरत

काल द्रव्य असंख्यात क्यों हैं, जबकि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य एक - एक हैं ? धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य की जरुरत क्या हैं?

इन दो प्रश्नो के जवाब के लिए हमे निमित्त के स्वरुप पर थोड़ा विचार करना होगा। यद्यपि यह बात शत-प्रतिशत सही है कि कार्य उपादान से होता हैं, निमित्त से नहीं। निमित्त का कार्य में कुछ भी योगदान नहीं होता हैं। फिर भी, कोई भी कार्य होने पर उस कार्य सम्बन्धी उचित निमित्त होना आवश्यक हैं। उचित निमित्त अर्थात जैसा कार्य का स्वरुप होता हैं, तदनुरूप निमित्त भी होता हैं। यदि कार्य सम्यकदर्शन का हैं, तो निमित्त भी देव-शास्त्र-गुरु होते हैं और यदि कार्य ज्ञान रूप हैं, तो निमित्त भी ज्ञान सम्बन्धी वस्तुए होती हैं।ठीक उसी तरह यदि कार्य सामान्य हैं, तो निमित्त भी सामान्य होना चाहिए और यदि कार्य विशेष हैं, तो निमित्त भी विशेष होना चाहिए ।
अब यहाँ, गति और स्थिति रूप कार्य की बात करते हैं। गति और स्थिति रूप कार्य में उपादान रूप कारण तो वे जीव और पुद्गल ही होंगे जिनमे की गति और स्थिति रूप कार्य सम्पन्न होगा, पर उस गति और स्थिति रूप कार्य को पुरे विश्व में संभव करने के लिए कोई निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए जो की पुरे विश्व में व्याप्त हो। चूँकि ये दोनों गति और स्थिति रूप कार्य जीव और पुद्गल द्रव्य इसलिए नहीं कर सकते हैं क्योंकि जीव और पुद्गल का कोई यथा स्थान निश्चित नहीं हैं। उनके अपने स्थान से हटने पर उस स्थान में गति और स्थिति रूप कार्य भी संभव नहीं होगा। इसलिए संपूर्ण विश्व में गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व को बनाये रखने के लिए धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य की आवश्यकता हैं।
अतः, धर्म द्रव्य एक ऐसा सामान्यकारण हैं जो की पुरे विश्व में जीव और पुद्गल की गति संभव रूप कार्य को सुनिश्चित करता हैं, ठीक उसी तरह अधर्म द्रव्य एक ऐसा सामान्यकारण हैं जो की पुरे विश्व में जीव और पुद्गल की स्थिति संभव रूप कार्य को सुनिश्चित करता हैं । चूँकि गति और स्थिति दो भिन्न तरह के कार्य हैं, इसलिए एक द्रव्य दोनों गति और स्थिति रूप कार्य को नहीं कर सकता हैं। इसलिए धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य दोनों का होना आवश्यक हैं।
आगे, यहाँ गति और स्थिति रूप परिणाम स्थूल परिणाम हैं क्योंकि ये दोनों परिणाम संपूर्ण विश्व में एक से हैं। क्षेत्र के भिन्न होने पर भी गति और स्थिति रूप परिणामो में अंतर नहीं आता हैं। जैसा गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व ऊर्ध्वलोक में हैं, वैसा ही गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व मध्यलोक और अधोलोक में भी हैं। अतः संपूर्ण विश्व में एक जैसा गति सामान्य और एक जैसा स्थिति सामान्य को बनाये रखने के लिए धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य एक-एक ही होना चाहिए, संख्यात,असंख्यात या अनंत नहीं ।
ठीक उसी तरह अवगाहनहेतुत्व भी संपूर्ण विश्व में एक सा हैं। अतः संपूर्ण विश्व में एक जैसा अवगाहन सामान्य को बनाये रखने के लिए आकाश द्रव्य भी एक ही होना चाहिए, संख्यात,असंख्यात या अनंत नहीं ।

अब यहाँ, परिणमन रूप कार्य की बात करते हैं। जीवादि द्रव्यों के परिणमन रूप कार्य में उपादान रूप कारण तो वे जीवादि द्रव्य ही होंगे जिनमे की परिणमन रूप कार्य सम्पन्न होगा, पर काल द्रव्य उस परिणमन रूप कार्य में निमित्त होता हैं। छह द्रव्य संपूर्ण विश्व में व्याप्त हैं, इसलिए संपूर्ण विश्व में परिणमन की सम्भवता को बनाये रखने के लिए काल द्रव्य भी संपूर्ण विश्व में व्याप्त होना चाहिए। चूँकि संपूर्ण विश्व में परिणमन एक सा नहीं हैं, जबकि गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व एक सा हैं। क्षेत्र के भिन्न होने पर परिणमन रूप परिणाम में भी अंतर आता हैं। जैसा परिणमन ऊर्ध्वलोक में होता हैं, वैसा मध्यलोक और अधोलोक में नहीं होता हैं। काल (परिणमन) का स्वरुप भिन्न-भिन्न क्षेत्रो में भिन्न-भिन्न हैं। भरतादि क्षेत्रो में काल परिवर्तन होता हैं पर विदेह क्षेत्रो में नहीं। तीनो तरह की भोग भूमियो में, सातो नरको में, सोलह स्वर्गो में परिणमन का स्वरुप भी भिन्न-भिन्न हैं। कहने का अर्थ यह हैं की भिन्न-भिन्न क्षेत्रो में भिन्न-भिन्न परिणमन रूप कार्य को संभव करने के लिए काल द्रव्य रूप निमित्त भी भिन्न-भिन्न होना चाहिए, एक से अधिक होना चाहिए। क्षेत्र विशेष कालाणु क्षेत्र विशेष परिणमन में कारण होते हैं। अतः जितने लोक के प्रदेश हैं, उतने ही कालाणु होना चाहिए। चूँकि लोक के असंख्यात प्रदेश हैं इसलिए कालाणुओ की संख्या भी असंख्यात होना चाहिए।
परिणमन रूप कार्य अति सुक्ष्म होता हैं, एक समय की पर्याय अति सुक्ष्म होती हैं। एक ही क्षेत्र में रहने वाले भिन्न-भिन्न द्रव्यों के और उनके गुण-पर्यायो के भिन्न-भिन्न अति सुक्ष्म परिणमन रूप कार्य को करने के लिए भी काल द्रव्य रूप निमित्त भी सूक्ष्म एवं शुद्ध होना चाहिए अर्थात पुद्गल परमाणु के स्कंध रूप होने की योग्यता रूप नहीं होना चाहिए।
इसतरह काल द्रव्य असंख्यात, और धर्म द्रव्य व अधर्म द्रव्य की जरुरत मालूम पड़ती हैं। अंत में, जैसा कार्य वैसा निमित्त ।
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विषय का विशेष विस्तार करते हैं -

धर्म द्रव्य सम्बन्धित

  1. गति में भी क्या सामान्य-विशेष होता है?
  2. यदि सामान्य गति को ही स्वीकार करें तो 1 संख्या उचित है किन्तु यदि विशेष गति को स्वीकार करें तो वे भी क्या असंख्यात नहीं होना चाहिए?
  3. गति विशेष को स्वीकार न करें तो भौतिकी विषय में स्पीड/गति को कैसे समझायेंगे?

काल द्रव्य सम्बन्धित

  1. क्या द्रव्य को, गुण को और पर्याय को भिन्न-भिन्न काल की आवश्यकता होती है?
  2. अलोकाकाश के सम्बन्ध में तो आप अभी मौन ही प्रतीत होते हैं!
  3. जब 1 प्रदेश पर अनन्त परमाणु मिलकर स्कन्ध बना रहे हैं तब उसही प्रदेश पर अनन्त वस्तुओं को परिणमित करने वाला 1 ही कलाणु क्यों?

सामान्य -
जीव-पुद्गल में विभाव रूप अर्थ, व्यंजन पर्याय पाई जाती है तो क्या ऐसा ही धर्म-अधर्म रूप 1 द्रव्य को मानकर उसकी 2 जाति की पर्यायें नहीं हो सकती थीं?

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