क्या समाधि मरण आत्महत्या है?

तर्क,युक्ति एवं आगम प्रमाण से सिद्ध करें।

Many of the Quora users (including Balaji Viswanathan) answered a related Question. This may be of some use to you.

What do Indians (both Jain and non-Jain) think of the pending case before the Supreme Court regarding the Jain practice of sallekhana (fasting to death)? How do other religions in India view the practice?

Rest, we can discuss your specific queries here.

1 Like

प्रयास-

आखिर समाधिमरण आत्महत्या क्यों नही???

समाधिमरण क्या है और क्या नहीं??? ये प्रश्न आज से कुछ साल पहले तक सिर्फ और सिर्फ जैन धर्म का ही अंग था। लेकिन बीते कुछ समय में यह न मात्र एक धार्मिक मुद्दा बन के रह गया है, अपितु दार्शनिक और राजनैतिक मुद्दा भी बन गया है।

क्या वाकई में समाधिमरण आत्महत्या है?

इस बात को मैं तीन बिन्दुओं के माध्यम से लिखना चाहता हूँ।

  1. राजनीतिक

  2. दार्शनिक

  3. धार्मिक

राजनीतिक दृष्टिकोण

महज 1 साल पहले राजस्थान सरकार ने हाइकोर्ट में याचिका दर्ज की थी कि, जैन धर्म की एक परंपरा जिसका नाम संथारा है,वह एक आत्महत्या का कदम है। जिस पर भारतीय सरकार को विचार विमर्श करना चाहिए और इस अंधविश्वासी परंपरा पर कानूनी रूप से रोक लगानी चाहिए।

बिना किसी धार्मिक सम्प्रदाय को संपर्क किये बिना ही हाइकोर्ट ने राजस्थान सरकार की याचिका को सही ठहरा दिया और संथारा जैसी पवित्र परंपरा पर धारा 306 और 309 के तहत आत्महत्या के लिए उकसावा और आत्महत्या के प्रयास के संविधान के आधार पर प्रतिबंध लगा दिया।

इस संबंध में जब जैन समाज को पता चला तब जैन समाज के बहुत से मुख्य प्रतिनिधियों और अनेकों जैन संगठनों ने इस याचिका और इस पर आये हाइकोर्ट के निर्णय का पुरज़ोर विरोध किया। इस संबंध में अनेकों वाद विवाद किये गए,अनेकों मूक रैलियों को निकाला गया,पत्रादि के माध्यम से केंद्र सरकार को इस संबंध में पुनः विचार करने के लिए निवेदन किया गया। और फिर ये केस हाइकोर्ट से सुप्रीमकोर्ट के लिए भेज दिया गया। सुप्रीमकोर्ट ने इस संबंध में सभी और से विचार करते हुए अनुच्छेद 25 के "आवश्यक रीति रिवाज के सिद्धांत" के तहत हाइकोर्ट की याचिका को निरस्त कर दिया। और जैन धर्म के समाधि,सल्लेखना के सिद्धांत को पूर्णतया सही बताया।

इस तरह "समाधिमरण आत्महत्या नही है" यह बात राजनैतिक रूप से घोषित कर दी गयी।

दार्शनिक दृष्टिकोण

दार्शनिक दृष्टिकोण से समाधिमरण के संबंध में कई लोगों ने इस परंपरा को आत्महत्या से जोड़ कर देखा ओर कई लोगों ने इसे पूर्ण रूप से सही ठहराया।

यदि समाधिमरण अपनी सीमा के अंदर हो तो वह पूर्ण निर्दोष क्रिया है किन्तु, यदि वह अपनी सीमा का अतिरेक करती है तो शायद समाधिमरण भी आत्महत्या है।

जैसे कि- जिनका प्रतिकार संभव न हो ऐसे उपसर्ग में,रोग में,दुर्भिक्ष में अथवा बुढ़ापे में यदि शरीर मात्र को त्याग देने का नाम समाधि मरण है तो शायद हाँ समाधिमरण एक आत्महत्या है।

यदि धीरे धीरे मरने का नाम समाधिमरण है तो शायद हाँ समाधिमरण एक आत्महत्या है।

प्रतिकार संभव होने पर भी यदि सल्लेखना लेना उचित है तो हाँ समाधिमरण एक आत्महत्या है।

यदि सोच समझ कर शरीर को कृष करने का नाम समाधिमरण है तो हाँ समाधिमरण एक आत्महत्या है।

यदि धीरे धीरे आहार को त्याग कर शरीर को त्याग देने का नाम समाधिमरण है तो हाँ समाधिमरण एक आत्महत्या है।

यदि समाधिमरण लेने के बाद चित्त में मृत्यु को निमंत्रण देने की भावना का नाम समाधिमरण है तो हाँ समाधिमरण एक आत्महत्या है।

ये एक सोचने का नज़रिया है जिससे हमे ये पता चलता है कि समाधिमरण यदि अपनी सीमा का अतिरेक करता है तो वह किस तरह आत्महत्या का रूप धारण कर लेता है।

क्योंकि जिसका प्रतिकार संभव न हो ऐसे रोगादिक की अवस्था में सिर्फ शरीर का त्याग कर देना समाधिमरण नही है अपितु धर्माय तनु विमोचन के लिए शरीर का त्याग करना समाधिमरण है। इसी प्रकार सिर्फ आहारादि क्रियाओं के त्याग का नाम समाधिमरण नही है अपितु धर्माय आहार विमोचन का नाम समाधिमरण है। सोच समझ कर शरीर को कृष करने का नाम समाधि मरण नही है अपितु धर्म के हेतु शरीर के त्याग का नाम समाधिमरण है। समाधिमरण लेने के बाद मृत्यु को निमंत्रण देने की भावना का नाम समाधिमरण नही है अपितु चित्त में से जीने और मरने के विचार का ही अभाव हो जाना समाधिमरण है।

इसप्रकार दार्शनिक रूप से किसी के विचार तो समाधिमरण की सहमति के रूप में हैं और किसी के इसके विरोध के रूप में।

विशेष बात ये है की समाधिमरण का उल्लेख सिर्फ जैन धर्म में नही है अपितु अन्य धर्मों में भी है। जैसे की हिंदु,सिक्ख,बौद्ध इत्यादि।

जिसका विवरण कुछ इसप्रकार है-

ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है।

समाधि ‘‘तदेवार्थमात्रनिर्भीसं स्वरूपशून्यमिव समाधि।।’’ जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है, और चित्त का निज स्वरूप शून्य-सा हो जाता है तब वही (ध्यान ही) समाधि हो जाता है। ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है, उसको ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं होती, उस समय उस ध्यान का ही नाम समाधि हो जाता है।

समाधि के दो भेद होते हैं- (1) सम्प्रज्ञात समाधि (2) असम्प्रज्ञात समाधि। सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद हैं-

(1) वितर्कानुगत

(2) विचारानुगत

(3) आनन्दानुगत

(4) अस्मितानुगत।

(1) वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात समाधि :- भावना द्वारा ग्राहय रूप किसी स्थूल-विषय विराट्, महाभूत शरीर, स्थलैन्द्रिय आदि किसी वस्तु पर चित्त को स्थिर कर उसके यथार्थ स्वरूप का सम्पूर्ण विषयों सहित जो पहले कभी देखें, सुने एवं अनुमान न किये हो, साक्षात् किया जाये वह वितर्कानुगत समाधि है। वितर्कानुगत समाधि के दो भेद हैं (1) सवितर्कानुगत (2) अवितर्कानुगत । सवितर्कानुगत समाधि शब्द, अर्थ एवं ज्ञान की भावना सहित होती है। अवितर्कानुगत समाधि शब्द, अर्थ एवं ज्ञान की भावना से रहित केवल अर्थमात्र होती है।

(2) विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि :- जिस भावना द्वारा स्थूलभूतों के कारण पंच सूक्ष्मभूत तन्मात्राएं तथा अन्तः करण आदि का सम्पूर्ण विषयों सहित साक्षात्कार किया जाये वह विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि है। यह समाधि भी दो प्रकार की होती है। (1) सविचार (2) निर्विचार। जब शब्द स्पर्श, रूप रस गंध रूप सूक्ष्म तन्मात्राओं एवं अन्तःकरण रूप सूक्ष्म विषयों का आलम्बन बनाकर देश, काल, धर्म आदि दशाओं के साथ ध्यान होता है, तब वह सविचार सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है। सविचार सम्प्रज्ञात समाधि के ही विषयां में देश-काल, धर्म इत्यादि सम्बन्ध के बिना ही, मात्र धर्मी के, स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराने वाली भावना निर्विचार समाधि कही जाती है।

(3) आनन्दानुगतय सम्प्रज्ञात समाधि :- विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के निरन्तर अभ्यास करते रहने पर सत्वगुण की अधिकता से आनन्द स्वरूप अहंकार की प्रतीति होने लगती है, यही अवस्था आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कही जाती है। इस समाधि में मात्र आनन्द ही विषय होता है और ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ऐसा अनुभव होता है। इस समय कोई भी विचार अथवा ग्रहय विषय उसका विषय नहीं रहता। इसे ग्रहण समाधि कहते हैं। जो साधक ‘सानन्द समाधि’ को ही सर्वस्व मानकर आगे नहीं बढते, उनका देह से अभ्यास छूट जाता है परन्तु स्वरूपावस्थिति नहीं होती। देह से आत्माभिमान निवृत्त हो जाने के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुए योगी ‘विदेह’ कहलाते हैं।

(4) अस्मितानुगत सम्प्रज्ञानुगत समाधि :- आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास के कारण जिस समय अर्न्तमुखी रूप से विषयां से विमुख प्रवृत्ति होने से, बुद्धि का अपने कारण प्रकृति में विलीन होती है वह अस्मितानुगत समाधि है। इन समाधियां आलम्बन रहता है। अतः इन्हें सालम्बन समाधि कहते हैं। इसी अस्मितानुगत समाधि से ही सूक्ष्म होने पर पुरूष एवं चित्त में भिन्नता उत्पन्न कराने वाली वृत्ति उत्पन्न होती है। यह समाधि- अपर वैराग्य द्वारा साध्य है।

असम्प्रज्ञात समाधि :- ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ की पराकाष्ठा में उत्पन्न विवेकख्याति में भी आत्मस्थिति का निषेध करने वाली ‘परवैराग्यवृत्ति’ नेति-नेति यह स्वरूपावस्थिति नहीं है, के अभ्यास पूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि सिद्ध होती है। ‘योग-सूत्र’ में ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ का लक्षण इस प्रकार विहित है- ‘‘विरामप्रत्याभ्यासपूर्व : संस्कारशेषोऽन्यः।।’’अर्थात् सभी वृत्तियों के निरोध का कारण (पर वैराग्य के अभ्यास पूर्वक, निरोध) संस्कार मात्र शेष सम्प्रज्ञात समाधि से भिन्न असम्प्रज्ञात समाधि है। साधक का जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, उस समय स्वभाव से ही चित्त संसार के पदार्थों की ओर नहीं जाता। वह उनसे अपने-आप उपरत हो जाता है उस उपरत-अवस्था की प्रतीति का नाम ही या विराम प्रत्यय है। इस उपरति की प्रतीति का अभ्यास-क्रम भी जब बन्द हो जाता है, उस समय चित्त की वृत्तियों का सर्वधा अभाव हो जाता है। केवल मात्र अन्तिम उपरत-अवस्था के संस्कारों से युक्त चित्त रहता है, फिर निरोध संस्कारों में क्रम की समाप्ति होने से वह चित्त भी अपने कारण में लीन हो जाता है। अतः प्रकृति के संयोग का अभाव हो जाने पर द्रष्टा की अपने स्वयं में स्थिति हो जाती है। इसी सम्प्रज्ञात समाधि या निर्बीज समाधि कहते हैं। इसी अवस्था को कैवल्य-अवस्था के नाम से भी जाना जाता है।

वैदिक परंपरा के अनुसार समाधि शब्द का प्रथम बार प्रयोग मैत्री उपनिषद में किया गया था।

बौद्ध धर्म में समाधि को समता के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही साथ बौद्ध धर्म में समाधि का व्यापक निरूपण है।

इस तरह दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार करने पर बहुलता इसी बात की है कि समाधिमरण आत्महत्या नही है वरन आत्मरक्षा का अदभुत उपाय है।

धार्मिक दृष्टिकोण

समाधिमरण आत्महत्या नही है इस बात को यदि सर्वाधिक बलजोरी के साथ कोई सिद्ध करता है तो वह है धार्मिक दृष्टिकोण।

समाधिमरण और आत्महत्या में क्या अंतर है ये हम निम्न बिंदुओं के माध्यम से समझते हैं-

  1. आत्मस्वभाव में समा जाने का नाम समाधि है और आत्मस्वभाव के घात करने का प्रयास करना आत्महत्या है।

परिणामों की अपेक्षा

2.जगत के सम्पूर्ण परिणमन के प्रति समता भाव पूर्वक मरण का नाम समाधिमरण है और जगत के सम्पूर्ण परिणमन के प्रति विसमता भाव पूर्वक मरण होना आत्महत्या है।

कारण की अपेक्षा

3.मन्द कषाय सहित विवेक विचार पूर्वक मरण का होना समाधिमरण है और तीव्र कषाय सहित अविवेक के अतिचार पूर्वक मरण होना आत्महत्या है।

फल की अपेक्षा

  1. धर्मरूपी धन को अगले भव में ले जाने का नाम समाधिमरण है और कर्मरूपी धन को अगले भव में ले जाने का नाम आत्महत्या है।

कषाय व गुणस्थान की अपेक्षा

  1. समाधिमरण का कार्य मुख्यतः चौथे गुणस्थान के ऊपर का कार्य है और आत्महत्या पहले गुणस्थान में होने वाला निकृष्ट कार्य है।

  2. समाधिमरण अनंतानुबंधी के अभाव पूर्वक होने वाली क्रिया है जबकि आत्महत्या अनंतानुबंधी की चरम सीमा में होने वाली क्रिया है।

अब यहाँ पर कोई ऐसा प्रश्न कर सकता है की समाधिमरण तो मरण का ही व्रत है ओर ये धारण करनेके बाद भोजनादि का त्याग करना भी प्रारम्भ कर दिया है। फिर इसे मरण की भावना न बोला जाए तो फिर क्या बोला जाए?

उत्तर- समाधिमरण का व्रत लिया ही तब जाता है जब इस बात का निर्णय हो गया हो की अब किसी भी प्रकार से इस देह में अधिक काल तक रहना संभव नही है।ये बात बिल्कुल सही है ये व्रत लेने के बाद व्रती के मन में जीविताशंसा नही होती किन्तु मरणाशंसा का विकल्प भी उसके मन में नही होता।

जब तक आप भोजन का भक्षण कर सकने की अवस्था में हैं तब तक भोजन ग्रहण करना उचित है लेकिन जब भोजन ही आपका भक्षण करने लगे तब तो विवेकवान को भोजन का त्याग कर देना ही उचित है। बस कुछ ऐसी ही परिस्थिति समाधिमरण लेने वाले की होती है। समाधिमरण आकुलता का नही अपितु परम समता को धारण करने का व्रत है।

शायद इसलिए ही…समाधिमरण आत्महत्या नही आत्मसाधना है।

इसी भावना के साथ…

  • आपका अनुभव
5 Likes

संथारा आत्महत्या नहीं
1 Like