केवलज्ञान होने के पश्चात उपयोग में मन का सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है,
किसी को आशीर्वाद देने का भाव शुभ राग है जो विकल्प है और मन से उपयोग का व्यापार होने पर आता है "आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार" बुक में आता है कि भगवान सीमंधर स्वामी की दिव्यध्वनि में आशीर्वाद आया की “सत्धर्मवृद्धिरस्तु”. सबको आश्चर्य हुआ कि ये आशीर्वाद किसे दिया गया है, तब दिव्यध्वनि में आया की भरत क्षेत्र के आचार्य कुन्दकुन्द को ये आशीर्वाद दिया गया है!
अब यहाँ ये प्रश्न उपस्थित होता है कि केवलज्ञान सहित उपयोग निर्विकल्प है, आशीर्वाद देने का भाव हो तब मन की स्थिति कैसी होती है? क्या ये अबुद्धिपूर्वक दिए गए आशीर्वाद है या फिर ये कथन व्यवहार मात्र है ?
यह व्यावहारिक कथन ही लगता है, पर इस तरह और भी कथन आते हैं। यह बेहतर होगा की समवशरण से सम्बंधित कुछ और प्रश्नों के भी जवाब मिले, जैसे की –
१) क्या हर दिन या हर बार दिव्यध्वनि में वही विषय आता है, यदि वह भिन्न - भिन्न होता है, तो विषय के चुने जाने का आधार क्या होता है?
२) भव्य जन प्रश्न कब पूछते हैं, दिव्यध्वनि के समय और दिव्यध्वनि के बाद ? दिव्यध्वनि के बाद, भव्य जन के प्रश्न के जवाब कौन देता है ?
३) यह भी कथन आता है, समवशरण में जिन मुख देखते ही प्रश्न का समाधान मिल जाता है, तो फिर दिव्यध्वनि में कौन से विषय का समाधान होता है
४) गणधर भगवान् दिव्यध्वनि के द्वारा द्वादशांग की रचना करते हैं, उसका अर्थ क्या है? क्या रचना मन में होती है? क्या रचना उनके उपदेश से होती है?
५) भरत चक्रवर्ती ने इतने प्रश्न पूछे, तो यह गिने किसने?
६) यदि भव्य जन को कोई भी प्रश्न नहीं हो तो, दिव्यध्वनि के समय और दिव्यध्वनि के बाद वह भव्य जन क्या करता है? आदि