जैन संस्कृति में यज्ञोपवीत संस्कार की गंध

जैन संस्कृति में यज्ञोपवीत संस्कार की गंध

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अनुभव शास्त्री, खनियांधाना

जैन संस्कृति में यज्ञोपवीत संस्कार मान्य है अथवा नहीं? इस सम्बंध में कुछ आगम प्रमाण उपलब्ध होते हैं जो कुछ इसप्रकार हैं। नीचे दिए हुए प्रमाण समीक्षा योग्य भी हैं, इस विषय मे सभी विद्वतजन अपने अपने विचार, विवेक, अन्य आगम प्रमाण आदि भी प्रस्तुत कर सकते हैं जो कि स्वागत के योग्य हैं।

हरिवंशपुराण, सर्ग 24, श्लोक 1-5, पृष्ठ-504, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण आठवां(2003)

अथ सभ्यसमाकीर्णामन्यदा यादवी सभाम् ।
आजगाम नभोगामी नारदी नमसो मुनिः ॥१॥

आपिशङ्गजटाभारश्मश्रुकूर्च: शशिद्युतिः ।
विद्युद्वलयविद्योतिशारदाम्बुधरोपमः ॥२॥

विचित्रवर्णविस्तीर्णयोगपट्टविभूषितः ।
परिवेषवतो बिभ्रदौषधीशस्य विभ्रमम् ॥३॥

'चलद्दुकूलकोपीनपरिधानपरिच्युतः ।
दिवोऽनुग्रहवुद्धयेव जगतः कल्पपादपः ॥४॥

देहस्थितेन शुद्धेन त्रिगुणेनोज्ज्वलीकृतः ।
यज्ञोपवीतसूत्रेण स रत्नत्रितयेन वा ॥५॥

अथानन्तर किसी समय आकाश में गमन करनेवाले नारद मुनि आकाश से उतरकर सभासदों से भरी हुई यादवों की सभा में आये।।१॥

उन नारदजीकी जटाएँ, दाढ़ी और मूछ कुछ-कुछ पीले रंग की थीं तथा वे स्वयं चन्द्रमाके समान शुक्ल कान्तिके धारक थे इसलिए बिजलियों के समूह से सुशोभित शरद ऋतु के मेघ के समान जान पड़ते थे २॥

वे रंग-बिरंगे एक विस्तृत योग पट्ट से विभूषित थे इसलिए परिवेष ( मण्डल ) से युक्त चन्द्रमा की शोभा धारण कर रहे ये ॥३॥

उनका कोपीन और चद्दर हवा से मन्द-मन्द हिल रहा था इसलिए वे उनसे ऐसे जान पड़ते थे मानो जगत् का उपकार करने की इच्छा से आकाश से कल्प वृक्ष ही नीचे आ गिरा हो ।।४।

वे अपने शरीर पर स्थित तीन लर के उस शुद्ध यज्ञोपवीत सूत्र से अत्यंत उज्ज्वल थे जो सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन गुणों के समान जान पढ़ता था ॥५॥

महापुराण, पर्व 15, श्लोक 164 में लिखा है कि ऋषभनाथ तीर्थंकर ने भरत के अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार स्वयं किए थे।

महापुराण, पर्व 15, श्लोक 164, पृष्ठ-339, ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला, संस्कृत ग्रंथ- , प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, काशी

अन्नप्राशन-चौलोपनयनादीननुक्रमात् ।
क्रियाविधीन विधानज्ञः स्रष्टैवास्य निसृष्टवान् ॥164

विधि को जानने वाले भगवान ऋषभदेव ने अनुक्रम से अपने उस पुत्र का अन्नप्राशन (पहली बार अन्न खिलाना), चौल (मुडन) और उपनयन ( यज्ञोपवीत) आदि सरकार स्वयं किये थे ।। १६४ ।।

प्रस्तुत प्रमाण से अन्नप्राशन, मुण्डन एवं उपनयन तीनों ही संस्कार आगम सम्मत हैं, यह सिद्ध होता है। किन्तु, क्या यह आगम की विकृति है अथवा एक सत्य जिसे जैन परंपरा में अब धूमिल कर दिया गया है।

चारित्र चक्रवर्ती पुस्तक में भी इसके संबंध में निम्न बातें ज्ञात होती हैं।

चारित्र चक्रवर्ती, पृष्ठ-195, सुमेरुचंद्र दिवाकर, नवम संस्करण-

‘यहाँ से चलकर संघ ता. 13 को दुर्ग पहुंचा। यहाँ जहां भी जैनी भाई मिलते, उनको अष्टमूलगुण धारण पूर्वक यज्ञोपवीत दिया जाता था। कारण “संस्कारात् द्विज उच्यते” संस्कार के कारण त्रिवर्ण वालों को द्विज कहते हैं। बिना संस्कार के शास्त्र की परिभाषा के अनुसार उच्चकुल वाले भी शूद्र संज्ञा को प्राप्त करते हैं। महापुराण में जिन मोक्षगामी पुरुषों का चित्रण किया गया है, उनके शरीर में यज्ञोपवीत का वर्णन किया गया है। यह व्रत चिह्न है,"व्रतचिह्न दधत्सूत्रम् "(महापुराण) ।’

चारित्र चक्रवर्ती, पृष्ठ-198-199, सुमेरुचंद्र दिवाकर, नवम संस्करण-

‘इस प्रकार सच्चा लोक-कल्याण करते हुए आचार्य महाराज का संघ 12 फरवरी को रांची पहुंचा। वहां बहुत लोगों ने अष्टमूलगुण धारण किये। वहाँ के सेठ रायबहादुर रतनलाल सूरजमलजी ने धर्मप्रभावना के लिये बड़ा उद्योग किया था। आचार्य संघ के द्वारा यज्ञोपवीत ग्रहण करने का उपदेश सुनकर कुछ लोगों ने शंका की कि महाराज यह तो वैदिक संस्कृति का चिह्न है, जैनियों को यज्ञोपवीत लेने का क्या कारण है ? आचार्य महाराज ने समझाया कि "आगम में यज्ञोपवीत संस्कार बताया गया है, वह रत्नत्रय धर्म का प्रतीक है। दान पूजा का अधिकार उसे प्राप्त होता है, जिसका कि यज्ञोपवीत संस्कार हुआ हो।"महापुराण में द्विज उसे बताया है जिसका माता के गर्भ से तथा क्रिया से जन्म हुआ हो । इस प्रकार संस्कार के द्वारा जन्म वाला द्विज कहलाता है।…आचार्य महाराज के उपदेश से लोगों को संतोष हुआ तथा बहुतों ने रत्नत्रय के प्रतीक यज्ञोपवीत लिए। यदि यह कार्य आगम समर्थित न होता तो आगम प्राण आचार्य महाराज उसके प्रचार को कभी भी महत्व न देते, यह बात विवेकी सत्पुरुषों को सोचना उचित है।’

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