जैन शब्द का समभिरूढ़

हमारे सम्प्रदाय को जैन नाम से कब सबसे पहले बुलाया गया?

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दिगम्बर शब्द कब से शुरू हुआ ? कृपया जानकारी देवे

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मुझे अभी तक सबसे पुराना उल्लेख समयसार की जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति में गाथा 327 की टीका में मिला।

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४. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूति का परिचय

उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १६४ का उपोद्घात/पृ.१५१ जमालिप्रभृतीनां निह्नवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्न:।

उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र १७८/पृ.१७९ पर उद्धृत छव्वाससएहिं णवोत्तरेहिं सिद्धिंगयस्स वीरस्स। तो वोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा। = श्वेताम्बर आगम में यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवों का कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञा को प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगम के प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धि वाले होते हैं, परन्तु गुरु आज्ञा से विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिये जाने पर स्वयं स्वच्छन्द रूप से अपने-अपने मतों का प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न सम्प्रदायों व मतमतान्तरों की उत्पत्ति होती है। भगवान् वीर के निर्वाण होने के ६०९ वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.सं.१३९ में ‘रथवीपुर’ नामक नगर में वोटिक (दिगम्बर) मतवाला अष्टम निह्नव शिवभूति उत्पन्न हुआ।

उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/पृ.१७९-१८० का भावार्थ - यह शिवभूति अपनी गृहस्थावस्था में अत्यन्त स्वच्छन्द वृत्ति वाला एक राजसेवक था, जिसने किसी समय राजा के एक शत्रु को जीतकर राजा को प्रसन्न किया और उपलक्ष्य में उससे नगर में स्वच्छन्द घूमने की आज्ञा प्राप्त कर ली। वह रात्रि को भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण उसकी स्त्री व माता उससे तंग आ गयीं, और एक रात्रि को जब वह घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपाश्रय में चला गया और गुरु के मना करने पर भी ‘खेलमल्लक’ नामक किसी साधु से दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल पश्चात् ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुन: इस नगर में आया तो राजा ने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कम्बल भेंट किया। गुरु की आज्ञा के बिना भी उसने वह रत्न कम्बल ग्रहण कर लिये और उसे गुरु से छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्या के लिए उसकी पोटली में से वह कम्बल निकाल लिया और बिना पूछे उसमें से फाड़कर साधुओं के पाँव पोंछने के आसन बना दिये। अत: शिवभूति भीतर ही भीतर गुरु के प्रति रुष्ट रहने लगा।

५. शिवभूति से दिगम्बर मत की उत्पत्ति :

उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/पृ.१७९ - इत्यादि सो (सिवभूइ) किं एस एवं ण कोरइ। तेहिं भणियं - एष व्युच्छिन्न:। मम न व्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्य:।

उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/१८० न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गत:। …तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वन्दिका गता, तं च दृष्ट्वा तयापि चीवरादिकं सर्वं त्यक्तं, तदा भिक्षायै प्रविष्टा गणिकया दृष्टा। मास्मासु लोको विरङ्क्षीत् इति उरसि तस्या: पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं - तिष्ठतु एषा तव देवता दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यौ प्रवजितौ - कौण्डिन्य: कोटिवीरश्च, तत: शिष्याणां परम्परा स्पर्शो जात:।’ - ।

उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र १७८/पृ.१८० पर उद्धृत - उहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं। मिच्छादंसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णं।१। बोडियसिवभूइओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती। कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना।२। =एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार जिनकल्प के स्वरूप का कथन कर रहे थे, तब शिवभूति ने उनसे पूछा कि किस कारण से अब आप साधुओं को जिनकल्प में दीक्षित नहीं करते हैं। ‘वह मार्ग अब व्युच्छिन्न हो गया है’, गुरु के ऐसा कहने पर वह बोला कि भले ही दूसरों के लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परन्तु मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होने से परलोकार्थी के लिए वही ग्रहण करना कर्त्तव्य है। - हीन संहनन के कारण इस काल में वह सम्भव नहीं है, गुरु के पूर्वोक्त प्रकार ऐसा समझाने पर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरु की बात स्वीकार नहीं की, और वस्त्र त्यागकर अकेला वन में चला गया। उसके पीछे उसकी बहन भी उसकी वन्दनार्थ उद्यान में गयी और उसे देखकर वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश कर रही थी, तो एक गणिका ने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूति ने ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। शिवभूति ने कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दी जिनकी परम्परा में ही यह वोटिक या दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ है।

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किसी भी प्रमाण के मूल छंदों में दिगम्बर ‘शब्द’ नहीं है, यहाँ तो बोडिय लिंग कहा है।