रत्नकरण्ड श्रावकाचार में तो श्रावको को प्रतिदिन स्नान करने को कहा है, मस्करी आदि से छू जाने पर अथवा रति आदि क्रीड़ा करने पर अथवा देहसंस्कार आदि क्रिया के पश्चात अवस्य ही स्नान करने को कहा है, फिर मुनि को अस्नान और अदन्तधोवन मूलगुण श्री भगवान् ने क्यों कहे ? इनसे क्या लाभ है ? स्नान करने में या दाँत साफ़ करने में क्या दोष है ? ये तो गुण मालूम होते है।
अस्नान और अदन्तधोवन से किस प्रकार संयम की पुष्टि होती है?
1 Like
उत्तम प्रश्न, अवश्य विचारणीय!
श्रावक के चारित्र की सुरक्षा - समाज में रहकर (ग्रही या ग्रह-त्यागी) परिग्रह-परिमाण-व्रत पालन करने से होती है।
मुनि के चारित्र की सुरक्षा - समाज से परे, किञ्चित् भी परिग्रह न रखते हुए अपरिग्रह व्रत से होती है।
फांस तनक सी तन में सालै, चाह स्नान की दुख भालै।
प्रश्न - उपर्युक्त विश्लेषण से स्नान करने में अधिक परिग्रह की आवश्यकता होने से निराकरण हो गया किन्तु यदि दन्तधोवन में महाव्रत बाधित होता है, फिर मल के निहार के उपरान्त जल से प्रक्षालन क्यों किया जाता है?
उत्तर - भोजनोपरान्त मुख-प्रक्षालन होता है, उसके बाद मुख में बनने वाले तत्त्व पाचन प्रक्रिया में सहयोगी होते हैं, किन्तु मल-निहारोपरान्त बचे हुए मल-कणों से अधिक हानि होती है।
या आगम में इसके साधक कोई आर्ष वचन नहीं हैं।
2 Likes
इंद्रिय संयम का पालन होता है
1 Like