डॉ. वीरसागर जी के लेख

8. जैनाचार्यों की राष्ट्रिय भावना :arrow_up:

जैन आचार्य पूर्णत: वीतरागता के उपासक होते हैं | वे कभी भी, किसी से भी, किंचित् भी रागादि भाव करना उचित नहीं मानते | तथापि उन्होंने स्थान-स्थान पर राष्ट्र के प्रति ऐसे विचार व्यक्त किये हैं कि उनसे उनका बहुत ही गहरा राष्ट्रानुराग व्यक्त होता है | आजकल कुछ लोग थोड़ा-सा धर्मध्यान करते ही धर्मात्मा होने का दम्भ भरते हुए राष्ट्रप्रेम से दूर रहते हैं, उन्हें जैनाचार्यों के इन उद्गारों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए |

  • आचार्य पूज्यपाद स्वामी के राष्ट्रिय भावना से भरपूर इस श्लोक से तो हम सब सुपरिचित हैं ही, जिसे प्रतिदिन पूजा के पश्चात् सभी जैन श्रावक-श्राविका नियम से बोलते हैं -
    “सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् | देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र ||”
    इस श्लोक में आचार्यदेव ने सम्पूर्ण राष्ट्र और उसके सभी अंगों की कुशलता की कामना जिनेन्द्रदेव से की है | यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण श्लोक है | ‘शांतिपाठ’ के नाम से प्रसिद्ध इस श्लोक के अलावा शांतिधारा में भी राष्ट्र और उसके विविध अंगों की शांति की मंगल कामना की गई है, जो वास्तव में मूलतः ही पूरा पठनीय है | उसमें प्रकृति के सभी उपादान यहाँ तक कि पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि की भी कल्याण-कामना की गई है | यह भी प्रत्येक जैन मन्दिर में प्रतिदिन अनिवार्य रूप से पढ़ा जाता है |
  • इसके अतिरिक्त आचार्य धरसेन कृत ‘विश्वलोचनकोश’ में एक महत्त्वपूर्ण श्लोक उपलब्ध होता है-
    “भारतं मे प्रियं राष्ट्रं, भारतं हितकारकम् |
    भारताय नमस्तुभ्यं, यत्र मे पूर्वजा: स्थिता: ||”

    अर्थ-भारत मेरा प्रिय राष्ट्र है | भारत हितकारक है | अहो, मैं इस भारतवर्ष को नमस्कार करता हूँ, जहाँ कि मेरे महान पूर्वज रहे हैं |
    भाव यह है कि भारतवर्ष हमारे तीर्थंकर आदि महान पुरुषों की अति पवित्र भूमि है | यहाँ उन्होंने जन्म लिया है, राज्य करके प्रजा का कल्याण किया है, फिर महान तप किया है और अंत में मोक्ष को भी प्राप्त किया है, अतः यह भूमि तीर्थ के समान पूजनीय-वन्दनीय है | यहाँ आज भी लोग उनके बताए मार्ग पर चलकर सतत स्व-पर-कल्याण में लगे रहते हैं | धर्मध्यान के लिए यहाँ अनुकूल वातावरण रहता है, जो कि सदैव बना ही रहना चाहिए, उसमें कभी भी कोई व्यवधान नहीं आना चाहिए |
  • चामुंडराय कृत ‘चारित्रसार’ (पृष्ठ 42 )में तो यहाँ तक लिखा है कि हे मुनि ! यदि राष्ट्र पर कोई आपत्ति आई हो और वह तुमसे ही दूर हो सकती हो तो तुम अपनी मुनिदीक्षा का छेद करके भी राष्ट्र की आपत्ति को दूर करो, बाद में पुन: दीक्षा ले लेना | इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन आचार्यों की राष्ट्रिय भावना कितनी गहरी होती है |
  • जैन आचार्यों ने राष्ट्रविरुद्ध आचरण करने का भी कठोरतापूर्वक निषेध किया है, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है- “विरुद्धराज्यातिक्रम…”
    आचरण ही क्या, राष्ट्रविरुद्ध कथन करने का भी कठोरतापूर्वक निषेध किया है | यदि कदाचित् कोई मुनि राष्ट्रविरुद्ध कथन कर दे तो संघ के आचार्य उसे राज्य की सीमा से पार चले जाने का दंड देते हैं, जिसे शास्त्रों में ‘पारंचिक प्रायश्चित्त’ कहा गया है | इसीप्रकार पं. टेकचंदजी भी ‘सुदृष्टितरंगिणी’ में लिखते हैं-
    "“धम्मसभा णिव पंच य जादी लोगा य बंधुवग्गाणी |
    इणविरुद्ध वच करदि स च सठ लोगणिंद दुखलहो ||100 ||”
    *
    भावार्थ- जो व्यक्ति राज्य के विरुद्ध बोलता है वह शठ है, लोकनिंद्य है, दुःखभागी है |
  • देश को स्वतंत्र कराने में भी जैनों की बड़ी भारी भूमिका रही है | इस विषय की विशेष जिज्ञासा हेतु देखें डॉ. कपूरचंद जैन की कृति ‘स्वतन्त्रता संग्राम में जैन’ |
  • भारतीय संविधान की पुस्तक में भी तीर्थंकर भगवान महावीर का चित्र प्रकाशित किया गया है और कहा गया है कि इन्हीं के अहिंसादि आदर्शों पर चलकर हमारा देश स्वतंत्र हुआ है | इस बात को राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने भी एक कविता में कहा है – “वैशाली जन का प्रतिपालक…प्रजातंत्र की माता” |
  • भारतीय संविधान में प्रयुक्त ‘संसद’ और ‘सर्वोदय’ शब्द भी जैन शास्त्रों से गृहीत हैं |
  • अमरचंद दीवान/ भामाशाह/ महात्मा गाँधी आदि की राष्ट्रभक्ति से तो हम सब परिचित हैं ही |
  • “यदि सब जैन होते तो एक पुलिस चौकी की भी जरूरत नहीं पडती” – ज्ञानी जैलसिंह
  • जैनों की राष्ट्र सेवा आज भी विशेष उल्लेखनीय है (हजारों विद्यालय, चिकित्सालय आदि )
  • जैन सदा ही राष्ट्र की सेवा में अग्रणी रहे हैं और रहना भी चाहिए |

इस प्रकार हम देखते हैं कि वीतरागी जैन सन्तों में भी बहुत गहरा राष्ट्रानुराग भरा रहता है और जब उन सन्तों में ही इतना राष्ट्रानुराग है तो गृहस्थ श्रावकों में तो कितना अधिक राष्ट्रानुराग होता होगा | सभी जैन श्रावक पूर्णतया राष्ट्रभक्त होते हैं | राष्ट्रिय संविधान और राष्ट्रिय प्रतीकों में उनकी हार्दिक आस्था होती है, वे कभी स्वप्न में भी इनके विरुद्ध चिन्तन नहीं करते, इनके विरुद्ध आचरण करने की तो बात ही बहुत दूर है |
जैन धर्म एक राष्ट्रवादी धर्म-दर्शन है | दुनिया के अनेक धर्म-दर्शन जहाँ राष्ट्र को कोई महत्त्व नहीं देते, वहीं जैन धर्म राष्ट्र को अत्यधिक महत्त्व देता है | जैनाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में यत्र-तत्र राष्ट्र के सर्वविध कल्याण की कामना की है | जैन धर्म अपने अनुयायियों को भी राष्ट्र की हरसम्भव सेवा की प्रेरणा देता है |

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