न्यायशास्त्र अध्यात्मविद्या के लिए विशेष उपयोगी माना गया है, जैसा कि आचार्य सोमदेवसूरि ने ‘नीतिवाक्यामृत’ ( 5/63 ) में कहा है- “आन्वीक्षिक्यध्यात्मविषये|”
अर्थ- आन्वीक्षिकी विद्या अर्थात् न्यायविद्या आध्यात्मिक विषय में उपयोगी है |
अर्थ- आन्वीक्षिकी विद्या अर्थात् न्यायविद्या आध्यात्मिक विषय में उपयोगी है |
‘समयसार’ अध्यात्मविद्या का शिरोमणि ग्रंथ है | उसमें न्यायशास्त्र के प्रचुर प्रयोग हुए हैं | यहाँ उनमें से कतिपय प्रयोग ध्यानपूर्वक द्रष्टव्य हैं | यथा-
- एकत्वविभक्त = एक वस्तु कभी दो नहीं हो सकती, दो वस्तु कभी एक नहीं हो सकती |
- यदि जीव के वर्णादि हों तो जीव रूपी सिद्ध होगा | (गाथा ६३)
- यदि संसारी जीव के भी वर्णादि माने जाएँ तो वह पुद्गल सिद्ध होगा और फिर पुद्गल को ही मोक्ष हुआ कहा जाएगा |(गाथा ६४)
- यदि जीव के वर्णादि माने जाएँ तो जीव और अजीव में कोई अंतर सिद्ध नहीं होगा |(गाथा६२)
- वर्णादि से गुणस्थान तक सभी भाव जीव से भिन्न हैं, परभाव हैं, क्योंकि जीव की अनुभूति करने पर वे कोई भी दिखाई नहीं देते |
- सभी जीवस्थान (14 जीवसमास ) पुद्गल हैं, क्योंकि वे नामकर्म की प्रकृति से बने हैं, जो कि पुद्गल है, क्योंकि जो जिससे बनता है, वह वही होता है | सोने से बने तो सोना और लोहे से बने तो लोहा | सीधा न्याय है |
- यदि जीव पुद्गल का कर्ता हो स्वयं भी पुद्गल हो जाए, यदि पुद्गल जीव का कर्ता हो स्वयं भी जीव हो जाए; किन्तु ऐसा नहीं होता है | इससे सिद्ध होता है जीव पुद्गल का और पुद्गल जीव का कर्ता नहीं है |
- यदि जीव अपना स्वयं का भी और पुद्गल का भी, दोनों का कर्ता माना जाए तो द्विक्रियावाद का दोष उपस्थित होता है | (गाथा ८६ )
- तुम किसी जीव को मार नहीं सकते, क्योंकि जीवों का मरण तो केवलियों ने आयुक्षय से कहा है और तुम आयुक्षय कर नहीं सकते | तुम किसी जीव को जिला भी नहीं सकते, क्योंकि जीवों का जीवन तो केवलियों ने आयु-उदय से कहा है और तुम आयु दे नहीं सकते | (गाथा 248)
- शास्त्र में ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र कुछ जानता नहीं है | (गाथा 390)
- शब्द में ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द कुछ जानता नहीं है | (गाथा 391)
इन प्रयोगों से यह भी सिद्ध होता है कि जैन अध्यात्म यूं ही निराधार या भावुकता मात्र नहीं है, अपितु तर्क, युक्ति या न्याय के ठोस धरातल पर स्थित है | तथा न्यायशास्त्र के अध्ययन से अध्यात्म में प्रवेश करना सुगम हो जाता है |