डॉ. वीरसागर जी के लेख

5. न्यायशास्त्र के अध्ययन की जीवन में उपयोगिता :arrow_up:

अनेक लोग पूछते हैं कि न्यायशास्त्र को पढ़ने से जीवन में क्या लाभ है, इसकी हमारे दैनिक जीवन में क्या उपयोगिता है; अत: इस विषय को यहाँ संक्षेप में लिखने का प्रयास करता हूँ |
यह प्रश्न स्वाभाविक है, बहुतों को उत्पन्न होता है, क्योंकि न्यायशास्त्र एक बड़ा ही कठिन एवं नीरस-सा विषय है, प्रथम दृष्टि में उसकी जीवन में कोई उपयोगिता भासित नहीं होती | गणित, विज्ञान, कंप्यूटर आदि अन्य सब विषयों की तो जीवन में उपयोगिता समझ में आती है, पर न्यायशास्त्र की नहीं आती | लगता है कि यह सब प्रमाण, नय, अनुमान, हेतु, व्याप्ति, लक्षण, लक्षणाभास आदि आखिर हम क्यों पढ़ रहे हैं; इनसे क्या मिलने वाला है ?
यही कारण है कि न्यायशास्त्र को पढने वाले विद्यार्थी बहुत कम होते हैं | उन्हें इसकी जीवन में कोई उपयोगिता ही नहीं समझ में आती | जबकि इसकी हमारे दैनिक व्यावहारिक जीवन में भी बड़ी भारी उपयोगिता है | न्यायशास्त्र से तत्त्वाधिगम तो होता ही है, किन्तु उससे हमारी बुद्धि और वाणी भी अत्यंत निर्मल और निर्दोष बनती है तथा उससे हमारे सर्व कार्य भलीभांति सम्पन्न होते हैं |
न्यायशास्त्र हमारी बुद्धि को नाना प्रकार से एकदम निर्मल, निर्दोष बनाता है, ताकि हम सत्य-असत्य या सही-गलत का एकदम सही निर्णय कर सकें | यही उसकी मूल अवधारणा है, जिसे वह बार-बार अच्छी तरह कूट-कूट कर हमें गहराई से समझाता है | उसे किंचित् भी स्वार्थ, पक्षपात, अन्धविश्वास, पूर्वाग्रह, संकीर्णता आदि कोई भी बुद्धि-दोष स्वीकार नहीं है, क्योंकि इनसे सत्य का सही निर्णय नहीं होता, विपरीत हो जाता है | इसी प्रकार वह हमें निष्पक्षता, उदारता, शांति, धैर्य, युक्तिप्रमाणावलंबन आदि सद्गुणों से युक्त बनाता है, क्योंकि इन्हीं से सत्य का सही निर्णय होता है |
अत: इस आलोक में हम भलीभांति समझ सकते हैं कि न्यायशास्त्र व्यक्ति को एक ऐसा वैज्ञानिक चेतना-सम्पन्न, शान्त एवं तार्किक बुद्धिमान मनुष्य बनाता है जो अन्धविश्वास, पक्षपात, दुराग्रह, स्वार्थ, संकीर्णता आदि दुर्गुणों से कोसों दूर रहता है |
वह अपने विरोधी व्यक्ति से भी नफरत या क्रोध नहीं करता, अपितु उसकी बात शांतिपूर्वक सुनता है और फिर उसकी तर्क-युक्ति से समीचीन परीक्षा करता है और जैसी वह है वैसी ही मानता-मनवाता है | वह विरोधी व्यक्ति से मतभेद होते हुए भी मनभेद नहीं रखने की महान कला सीख जाता है | उसे अहंकार,उत्तेजना, आवेग आदि भी कभी परेशान नहीं करते | वह सहजतापूर्वक सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जान लेता है, स्वीकार कर लेता है |
न्यायशास्त्र के ज्ञाता पुरुष को कभी कोई ठग भी नहीं सकता, खरीद नहीं सकता, मूर्ख नहीं बना सकता, क्योंकि वह भावुकता, भय, शर्म जैसी अनेक दुर्बलताओं से ऊपर उठ जाता है | भावुक व्यक्ति सत्य को नहीं समझ पाते, वे शीघ्र दूसरों के प्रभाव में आ जाते हैं, वे जीवन में बहुत जल्दी ठगाए जाते हैं |
न्यायशास्त्र का अध्येता कहीं पक्षपात भी नहीं करता | निष्पक्षता, वैज्ञानिकता, धैर्य आदि ही उसके जीवन-मूल्य होते हैं | वह केवल सत्य का आग्रह रखता है, अन्य कोई व्यक्ति, देश, काल, जाति, लिंग, भाषा आदि का भी आग्रह नहीं रखता | लोग अनेक प्रकार की संकीर्णताओं में रुके रहते हैं, पर वह आकाश के समान उदार बन जाता है | लोक में व्यक्तिवाद भी बहुत छाया हुआ है, लोग उसी में बुरी तरह उलझे हुए हैं, किन्तु न्यायशास्त्र का ज्ञाता पुरुष व्यक्तिवाद आदि से बहुत ऊपर उठ जाता है, वस्तुवादी बन जाता है, सत्यवादी बन जाता है |
कहने का तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार अन्य विद्याएँ जीवन में उपयोगी होती हैं, उसीप्रकार न्यायविद्या भी जीवन में अत्यंत उपयोगी है | बल्कि एक दृष्टि से तो यह उन अन्य विद्याओं से भी अधिक उपयोगी है | जिसप्रकार कंप्यूटरविद्या सीखने से कंप्यूटर को उसके दोषों से बचाकर ठीक से काम करनेवाला बनाए रखना आता है, आयुर्वेदविद्या सीखने से शरीर को उसके दोषों से बचाकर ठीक से काम करनेवाला बनाए रखना आता है, उसीप्रकार न्यायविद्या सीखने से बुद्धि को उसके दोषों से बचाकर ठीक से काम करनेवाला बनाए रखना आता है | न्यायशास्त्र पढ़ने वाले की बुद्धि में कभी कोई दोष उत्पन्न नहीं होते और कदाचित् कोई दोष उत्पन्न हो जाए तो वह उसे ठीक करना भी जान जाता है, अत: शीघ्र ठीक कर लेता है |
इस प्रकार न्यायशास्त्र हमें अपनी बुद्धि को सदैव निर्मल निर्दोष बनाए रखने की कला सिखाता है, जो जीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है | जीवन का मूलाधार बुद्धि ही तो है | यदि हमारी बुद्धि ही मलिन, दूषित या रुग्ण है तो अन्य तन, धन, घर आदि ठीक भी रहें तो हमारे किस काम के ? अत: बुद्धि को निर्मल, निर्दोष, स्वस्थ रखने के लिए न्यायशास्त्र अवश्य पढना चाहिए |
न्यायशास्त्र सत्य को जानने के साथ सत्य को ठीक से ( निर्दोष रीति से ) कहने-सुनने या समझाने की कला भी सिखाता है, अत: न्यायशास्त्र के अध्ययन से बुद्धि के साथ-साथ वाणी भी निर्दोष निर्मल होती है | न्यायशास्त्र के ज्ञाता के मुख से दूषित वचन नहीं निकलते | स्वरूप, कारण, फल आदि सभी के विषय में वह युक्तियुक्त कथन करता है, युक्तिविरुद्ध कदापि नहीं | निराधार एवं अप्रामाणिक वचन वह कभी नहीं बोलता | वह समीचीन वक्ता बन जाता है |
इसप्रकार हम देखते हैं कि न्यायशास्त्र हमारी बुद्धि और वाणी – दोनों के सर्व दोषों को दूर करता है, हमें निर्दोष बुद्धि और वाणी का धनी बनाता है, जो कि हमारे जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष होता है |
न्यायशास्त्र के अध्ययन से हम किसी भी वस्तु के स्वरूप का निर्भ्रान्त ज्ञान करने में समर्थ हो जाते हैं, कारण-कार्य-सम्बन्धों को समझने में भी हमसे कहीं कोई गलती नहीं होती | तथा इससे हमारे चित्त की सम्पूर्ण आकुलता दूर होकर सहज निराकुलता – शांति प्रकट होती है | न्यायशास्त्र के अध्ययन से सत्य का निर्णय करना भी सरल होता है, जिसप्रकार कि तराजू आदि पैमाने हों तो वस्तुओं का मान जानना सरल हो जाता है |
इसी प्रकार अन्य भी अनेक लाभ न्यायशास्त्र के अध्ययन से होते हैं, अत: हम सबको मन लगाकर न्यायशास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए |
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