डॉ. वीरसागर जी के लेख

4. संगीत का महत्त्व :arrow_up:

संगीत एक अद्भुत कला है| आजकल प्राय: लोग इसे हल्के से लेते हैं, मनोरंजन करना या टाइम पास करना ही इसका उद्देश्य समझते हैं; परन्तु वास्तव में देखा जाए तो लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से संगीत का असाधारण महत्त्व सिद्ध होता है| संगीत की शिक्षा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने बहुत सोच-समझकर प्रजा को दी थी|
आधुनिक युग में तो विज्ञान (science) ने भी अनेकानेक प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर दिया है कि संगीत का मनुष्य के जीवन में अद्भुत महत्त्व है| न केवल मनुष्य के जीवन में, अपितु पशु-पक्षियों के जीवन में भी, यहाँ तक कि पेड़-पौधों पर भी संगीत का आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है| उदाहरणार्थ- एक प्रयोग बताता है कि संगीत से पेड़-पौधे स्वस्थ-सुन्दर एवं सुविकसित होते हैं और प्रचुर फल उत्पन्न करते हैं, दूसरा प्रयोग बताता है कि संगीत से उन्मत्त एवं क्रूर पशु-पक्षी भी शांत हो जाते हैं, विषधर सर्प भी वशीभूत हो जाता है, तीसरा प्रयोग बताता है कि संगीत से व्यक्ति की थकान उतर जाती है, सारा तनाव दूर हो जाता है और उसकी स्मरण-शक्ति भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है, चौथा प्रयोग बताता है कि संगीत से जटिल रोगों की भी चिकित्सा करना आसान हो जाता है|
फ्रेंकफुर्त विश्वविद्यालय जर्मनी की एक शोध (research) कहती है कि संगीत से मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी बढती है, रोगी का सिरदर्द, माइग्रेन, स्लीप डिस-ऑर्डर आदि सब ठीक हो जाता है, नींद की गोलियां खाने वाले भी उन्हें छोडकर अच्छी नींद का मजा लेने लगते हैं| इसी प्रकार एक अन्य अध्ययन बताता है कि संगीत के द्वारा क्रोध, भय जैसे बड़े मनोविकार भी आसानी से दूर किये जा सकते हैं| भारतवर्ष के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, जो कि स्वयं एक वैज्ञानिक थे, ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि आतंकवाद जैसी विकराल समस्या को हल करने के लिए हमें संगीत-जैसी दैवी कला का उपयोग करना चाहिए (नवभारत टाइम्स, दिल्ली, 2 मार्च 2004)|
वैज्ञानिकों की उक्त सब बातें एकदम सत्य प्रतीत होती हैं, क्योंकि उन्हें हम सब अपने दैनिक जीवन में भी खूब देखते हैं| जैसे कि संगीत से रोता हुआ बच्चा तुरंत चुप हो जाता है| यदि हमें स्नानादि के समय बहुत सर्दी लग रही हो तो हम कुछ गाने-गुनगुनाने लगते हैं और हमारी सर्दी दूर हो जाती है| बैलों के गले में घंटी का संगीत बजता रहता है तो उससे वह थकता नहीं है, दिन भर काम करता रहता है, इत्यादि|
संगीत के माध्यम से आधुनिक युग में महामारी की तरह तेजी से बढ़ रहे तनाव (tension) और अवसाद (depression) को भी सहजतापूर्वक संभाला जा सकता है, जिसके कि बड़े ही भयंकर दुष्परिणाम हम सब प्रतिदिन समाचार-पत्रों में पढ़ते रहते हैं|
कहने का कुल तात्पर्य यही है कि संगीत एक अद्भुत कला है और इसका आश्रय लेकर हम जीवन के सभी क्षेत्रों में विशेष उन्नति कर सकते हैं, अत: हमें इसे हल्के से नहीं लेना चाहिए| हमें संगीत आये या न आये, प्रतिदिन थोड़ी देर अवश्य ही संगीत का अभ्यास करना चाहिए, उसे केवल सुनना ही नहीं, स्वयं से गाना भी अवश्य चाहिए - ‘गाना आये या ना आये गाना चाहिए’|
संगीत के महत्त्व को जानकर ही हमारे पूर्वजों ने हमारा अधिकांश साहित्य, न केवल साहित्य अपितु आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष आदि शास्त्रों को भी काव्यात्मक शैली में लिखा तथा हमें प्रतिदिन भजन, पूजन, आरती आदि कुछ-न-कुछ गाने की एक समृद्ध परम्परा भी प्रदान की| आज इस परम्परा के कारण हमारा बहुत कुछ सुरक्षित है, हम हजारों समस्याओं से बचे हुए हैं|
शास्त्रों में मित्र रखने की प्रेरणा देते हुए ( ‘अमित्रस्य कुतो सुखम्’ ) मित्र दो प्रकार के बताए गए हैं – स्वमित्र और परमित्र| इनमें से संगीत को स्वमित्र कहा गया है, क्योंकि हम उससे कभी भी, आधी रात को भी, कहीं भी, निर्जन अटवी में भी अपने मन की सारी बातें कर सकते हैं और एकदम निर्भार, स्वस्थ एवं प्रसन्न हो सकते हैं | संगीत की अद्भुत महिमा है, वचनों से कही नहीं जा सकती है| जिसका कोई नहीं उसका संगीत है यारो| संगीत निश्चय ही बहुत महान है|
इस पर भी यदि यह संगीत आध्यात्मिक हो, आत्मा-परमात्मा में मग्न करने वाला हो तो फिर कहना ही क्या ? ऐसे संगीत की तो गणधरादि महामुनि भी प्रशंसा करते हैं| भारतवर्ष मूलतः एक आध्यात्मिक देश है, यहाँ वही संगीत प्रशंसनीय माना गया है जो आध्यात्मिक हो| जो संगीत अश्लील हो, काम आदि विकारी भावों को उद्दीप्त करने वाला हो, उसे यहाँ कथमपि उपादेय नहीं माना गया है, क्योंकि उससे स्वस्थ मनोरंजन भी नहीं हो सकता, अपितु मानसिक रुग्णता ही पैदा होती है| अत: हमें सदैव श्रेष्ठ संगीत का आलम्बन लेना चाहिए| श्रेष्ठ संगीत ही हमें सच्ची सुख-शांति प्रदान करता है|
ऐसे श्रेष्ठ संगीत का वर्णन जैन आचार्य पार्श्वदेव स्वामी ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘संगीत-समयसार’ में भी बहुत अच्छा किया है जो पढ़ने और सीखने लायक है| वहाँ कहा गया है कि आध्यात्मिक संगीत से अत्यधिक विकारी, अशान्त एवं चंचल मन भी शीघ्र ही सहजतापूर्वक शान्त हो जाता है और शनै:-शनै: अपने आत्मस्वरूप में ही लीन हो जाता है| इस प्रकार संगीत आत्मलीनता या आत्मानुभूति का श्रेष्ठ साधन भी है| कविवर पण्डित दौलतरामजी आदि अनेक विद्वान् कवि इस आध्यात्मिक संगीत के द्वारा ही आत्मानुभूति का अमृतपान किया करते थे| निश्चय ही संगीत ब्रह्मसाक्षात्कार की अद्भुत कला है|
यद्यपि यह सत्य है कि संगीत रागात्मक होता है, परन्तु उसे वीतरागता का विशेष माध्यम भी बनाया जा सकता है| संगीत का आविष्कार रागी जीवों को वीतरागता के मार्ग पर लगाने की उत्तम कला के रूप में ही ऋषभदेवादि ने किया है| रागादि में आसक्त जीव बिना इसके, सीधे ही वीतरागता के मार्ग में नहीं लग सकते हैं और इसके माध्यम से सहज ही लग जाते हैं| यह बहुत बड़ा विज्ञान है|

संगीत का महत्त्व : दृष्टान्त-1

एक बार की बात है | श्रीकृष्ण वन में बांसुरी बजा रहे थे | इतना प्रभावी संगीत निकल रहा था कि सूखे पेड़-पौधों में भी जान आ गई | उनमें कोंपलें फूट आईं | सब लोग वाह-वाह करने लगे | किन्तु एक कुतर्की बोला – “मैं इसे बांसुरी के संगीत का प्रभाव नहीं मानता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो खुद बांसुरी में भी तो एक-दो पत्ते फूटने चाहिए थे |”
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- “अवश्य, यदि बांसुरी संगीत को ग्रहण करती तो उसमें भी कुछ पत्ते अवश्य फूटते, किन्तु बांसुरी में सात छिद्र हैं और उसने उनमें से सारा संगीत बाहर फेंक दिया, उसे ग्रहण नहीं किया | संगीत का प्रभाव उस पर पड़ता है जो उसे ग्रहण करता है |”

संगीत का महत्त्व : दृष्टान्त-2

पुराने ज़माने की बात है | एक आदमी धन कमाने के लिए बारह वर्ष के लिए विदेश जा रहा था | उसकी पत्नी बहुत दुखी होकर बोली- “मैं कैसे करूंगी, मेरा समय कैसे कटेगा?”
पति ने उसे संगीत सिखा दिया | पति विदेश चला गया | पत्नी संगीत में मग्न रहने लगी | वह जब संगीत-साधना करती तो अनेक पशु-पक्षी भी उसे घेरकर शांति से उसके पास आकर बैठ जाते- तोता, हिरण, सर्प आदि भी | एक हंस तो रोज ही उसकी गोद में एक मोती डालकर जाने लगा | खैर, साधना चलती गई और एक दिन उसका पति लौटकर उसके पास ही आकर खड़ा हो गया | पत्नी आश्चर्यचकित होकर बोली- “अरे तुम आ गये ! बारह वर्ष पूरे हो गये ! मुझे तो पता ही नहीं चला |”

संगीत का महत्त्व : दृष्टान्त-3

एक बार अकबर ने तानसेन से कहा – “वाह तानसेन वाह, क्या कमाल का गाते हो तुम, कैसे होंगे तुम्हारे गुरु ? अरे कभी एक बार अपने गुरुजी से भी तो मिलवाओ | बड़ी इच्छा है उनसे मिलने की |”
तानसेन – “किन्तु जहाँपनाह, वे यहाँ नहीं आते |”
अकबर – “हम उन्हें बड़े ही सम्मान से पालकी भेजकर बुलाएँगे |”
“नहीं, यदि उनके दर्शन करना है आपको स्वयं ही उनके पास चलना होगा |”
“ठीक है, चलो |”
अकबर और तानसेन जंगल में एक पेड़ के नीचे संगीत में डूबे हुए गुरु हरिदासजी के समक्ष जा खड़े हुए, किन्तु गुरुजी का ध्यान भंग न हुआ | किन्तु आखिरकार उनका ध्यान भंग हुआ, मुलाकात भी हुई और वे लौटकर वापिस आ गये | लौटकर अकबर ने तानसेन से कहा – “तानसेन, तुम बहुत अच्छा गाते हो, पर तुम्हारे गुरु के सामने तो तुच्छ-से ही हो |”
तानसेन – “जहाँपनाह, उनमें और मुझमें बड़ा अंतर है | मैं आपको खुश करने के लिए गाता हूँ और वे परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए गाते हैं | श्रेष्ठ संगीत दूसरों के लिए नहीं, केवल अपने लिए ही होता है |”
सुभाषितेन गीतेन बालानां च लीलया | यस्य न द्रवते चित्तं स मुक्तोsथवा पशु:||
अर्थ – जिस व्यक्ति का चित्त सुभाषित गीत – संगीत सुनकर और बच्चों की लीला देखकर द्रवित नहीं होता, वह या तो मुक्त होगा या पशु |
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