डॉ. वीरसागर जी के लेख

16. जैन विद्या के छात्रों को निर्देश :arrow_up:

काल पका है कि आज जैन विद्या के अनेक विद्यालय, महाविद्यालय खुले हैं और उनमें से हजारों की संख्या में विद्वान् तैयार होकर निकल रहे हैं | लगभग सभी विद्वान् बहुत अच्छे हैं | उनमें जैन तत्त्वज्ञान की गहरी रुचि भी पाई जाती है और वे अच्छे वक्ता भी हैं | उनके निमित्त से जैन विद्या का बहुत प्रचार-प्रसार हो रहा है | यह सब बड़े ही हर्ष और संतोष का विषय है | किन्तु फिर भी उन विद्वानों को कुछ निर्देश देने का बहुत भाव आ रहा है, ताकि वे राष्ट्रिय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होकर इस क्षेत्र में और भी अच्छा, ठोस कार्य कर सकें |कुछ विद्वान् छात्र आजीविका की दृष्टि से भी बहुत चिंतित दिखाई देते हैं | मैं समझता हूँ कि यदि वे इन निर्देशों पर ध्यान देंगे तो इससे उनकी इस समस्या का भी समाधान हो जाएगा | जैन विद्या के क्षेत्र में आज भी बहुत काम है, बस ठीक से करनेवाला चाहिए |
बहरहाल, वे निर्देश कुछ इस प्रकार हैं –

  1. अपने ज्ञान को बहुत व्यापक बनाएं | जैन विद्या बहुत व्यापक है, आपका ज्ञान भी बहुत व्यापक होना चाहिए | भाषा, व्याकरण, कोश, जैनेतर दर्शन, पुरातत्त्व, इतिहास, काव्यशास्त्र, न्यायशास्त्र आदि का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है |
  2. अध्ययन प्रतिदिन अवश्य करें | न केवल अध्ययन करें, प्रतिदिन एक-दो श्लोक, गाथा, लक्षण, परिभाषा आदि कंठस्थ भी अवश्य करें | जिसे लक्षण, भेद-प्रभेद आदि कंठस्थ हों, वही किसी विषय का ठीक से प्रतिपादन कर सकता है |
  3. प्रतिदिन घंटे-आध घंटे कुछ लोगों को पढ़ाने का कार्य भी अवश्य करना चाहिए | इससे विषय का ज्ञान और उसके प्रतिपादन का तरीका – दोनों ही बहुत निर्मल और व्यवस्थित होते हैं |(Teaching is the best way of learning.)
  4. अध्ययन से भी अधिक अधीत विषय का चिन्तन-मनन करें, तभी वह आत्मसात् होता है | अन्न को खाना ही नहीं, पचाना भी जरूरी होता है |
  5. बहुत अच्छा लेखक बनने का अभ्यास भी अवश्य करना चाहिए | स्तरीय शोध-पत्रिकाओं में आपके शोध-पत्र प्रकाशित होने चाहिए |
  6. संगोष्ठी-सम्मेलनों में जाकर पत्रवाचन या परिचर्चा करके सक्रिय सहभागिता करनी चाहिए |
  7. राष्ट्रिय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सीमित समय में (संक्षेप में) अपनी बात कहने में कुशलता हासिल करनी चाहिए | वक्तृत्व-कला और सभाशास्त्र पर भी कुछ पुस्तकें अवश्य पढ़नी चाहिए |
  8. विविध पत्र-पत्रिकाओं का भी अवलोकन करना चाहिए | न केवल अवलोकन करना चाहिए, यदि उनमें कुछ बहुत अच्छा या बहुत गलत छपा हो तो थोड़ी प्रतिक्रिया भी अवश्य लिखनी चाहिए|
  9. अंग्रेजी भाषा और कंप्यूटर के प्रयोग में भी दक्षता प्राप्त करनी चाहिए | आधुनिक युग में कंप्यूटर की सहायता से अपने व्याख्यान को बहुत प्रभावशाली बनाया जा सकता है |
  10. हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत – कम से कम इन तीन भाषाओं में तो धाराप्रवाह रूप से लिखना-बोलना आना ही चाहिए | इसके अतिरिक्त एक प्राकृत भाषा भी बहुत अच्छी आनी चाहिए, क्योंकि वही तो जैन आगमों की मूल भाषा है | उसके बिना कैसी श्रुतभक्ति ?
  11. समकालीन वातावरण और समस्याओं के प्रति भी जागरूक होना चाहिए और उनके समाधान भी – जैनदर्शन के आलोक में - आपके पास अवश्य होने चाहिए | सभी पूर्वाचार्यों में ऐसी समकालीन युगचेतना पाई जाती थी | जैनदर्शन सदा ही समसामयिक एवं प्रासंगिक रहा है |
  12. अपना दृष्टिकोण अत्यंत उदार रखें, किसी की निंदा-आलोचना में बहुत न उलझें | परिष्कार करो, बहिष्कार नहीं – की नीति पर चलें | स्याद्वादरूप जिनवाणी में ‘सर्वथा’ कहीं नहीं है | सभी पूर्वाचार्यों ने भी किसी के खंडन पर नहीं, अपितु खंडन के खंडन पर ही अधिक ध्यान दिया है, कथन की विवक्षा समझाने पर ही अधिक ध्यान दिया है |
  13. अप्रयोजनभूत बातों में भी बहुत न उलझें | मूल तत्त्वज्ञान को ही ठीक से समझने-समझाने में ऊर्जा लगाएं | आज के वैज्ञानिक युग का लाभ उठाएं | सामाजिक मुद्दों को भी गौण ही रखें, मुख्यता तो दार्शनिक विषयों की ही रहनी चाहिए | यही जैन विद्वान् का असली कार्य है |
  14. अच्छे विद्वानों की खूब सेवा/संगति करें | उनके प्रति अत्यधिक विनय भाव रखें | उनसे चर्चा-परिचर्चा भी खूब करें | उन सबके गुण ग्रहण करके स्वयं को समृद्ध बनाएं |
  15. अपने स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखें | आहार-विहार उचित ही होना चाहिए | अनुचित आहार-विहार कथमपि न करें | (long seating, bad posture, study in dim light, fast food)
  16. अनुशासन या समय-पालन का बहुत अधिक ध्यान रखें | समय का उल्लंघन व्यक्ति को कभी सफल नहीं होने देता | समय से पूर्व पहुंचने वाला व्यक्ति आधा तो इसी से सफल हो जाता है |
  17. वस्त्र भी ठीक ही पहनने चाहिए | खासकर सभा में तो अच्छे ही वस्त्र पहनने चाहिए |
  18. ईर्ष्या, लालच, कपट, अहंकार, दैन्य, प्रमाद, विषाद आदि दुर्भावों से स्वयं को दूर रखें | करुणा, सेवा, वात्सल्य, परोपकार, प्रसाद एवं परिश्रम आदि उत्तम गुणों को बढाएं |
  19. व्यक्तिवाद, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, पंथवाद आदि सर्व संकीर्णताओं से दूर रहें | किसी भी एक ग्रुप के बनकर न रहें |
  20. किसी की भी निंदा या प्रशंसा करना विद्वान् का कार्य नहीं है | उसे तो सर्वत्र ‘समीक्षा’ ही प्रस्तुत करनी चाहिए |
  21. आजीविका की बहुत अधिक चिंता न करें, स्वयं के कर्मोदय को शांति से सहन करें |बहुत चिंता करने से या जगह-जगह दीन होकर मांगते रहने से आजीविका नहीं मिलती | काल पकेगा तब सहज मिलेगी | आजीविका वास्तव में धन से नहीं, ज्ञान से चलती है – इस रहस्य को भी समझें| हमें जिनवाणी रूपी अद्भुत धन मिला, उससे अधिक और क्या चाहिए ? तथा कुछ पुरुषार्थी तो ऐसे होते हैं कि रोजगार मांगते नहीं, पैदा करते हैं – इस बात पर भी विचार करें | तथा अपनी योग्यता भी बढ़ावें, प्राय: योग्यता की कमी से ही रोजगार नहीं मिलता |
  22. औपचारिक शिक्षा जल्दी से न छोड़ दें, उसे निरंतर जारी रखें | शास्त्री क्या, आचार्य तक की शिक्षा भी पर्याप्त नहीं है |एम. फिल., पी-एच. डी. करना भी बहुत जरूरी है | आचार्य/एम.ए. भी यदि तीन-चार विषयों में हो जाए तो अच्छा है | बी.एड. करना भी उपयोगी है |
  23. आजीविका नहीं मिल रही – यह सोचकर जल्दी से किसी दुकान-व्यापारादि के कार्य में नहीं उलझ जाना चाहिए, क्योंकि बाद में उसमें से निकलकर शिक्षा के क्षेत्र में लगना बहुत कठिन हो जाता है |
  24. आपके पास अपना एक व्यवस्थित एवं प्रभावशाली बायोडाटा भी अवश्य होना चाहिए और आपको उसे उचित अवसरों पर प्रस्तुत भी अवश्य करना चाहिए |
  25. सदा प्रसन्न रहें, कभी दुखी न हों | चिंता चिता से भी बुरी होती है |( सजीवे दहति चिंता …)
  26. परिश्रम खूब करें, श्रमण संस्कृति के उपासक होकर श्रम से न घबराएं | प्रमाद से दूर रहें |
  27. ज्ञानाराधना से बहुत गहरा अनुराग रखें, उसी में सदा संतुष्ट और संतृप्त रहें |
  28. कभी भी किसी अन्य धर्म, जाति, समाज, देश आदि की निंदा न करें |
  29. जैनेतर साहित्य एवं संस्कृति का भी थोडा-बहुत परिचय अवश्य प्राप्त करें | जैनेतर विद्वानों से भी मधुर सम्बन्ध बनाकर रखें | उनसे विद्वेष भाव न रखें | उनसे भी ज्ञानचर्चा करके बहुत लाभ उठाया जा सकता है |
  30. भारतीय संविधान में आस्था रखें | शासन के विरुद्ध आचरण न करें | जैन दर्शन राष्ट्रवादी है | सभी आचार्यों ने राष्ट्रहित की हार्दिक कामना प्रकट की है और राष्ट्रविरुद्ध कुछ भी करने-कहने का निषेध किया है |
  31. विविध शास्त्रों का अभ्यास करते हुए या अन्य कोई आजीविकादि कार्य करते हुए भी अपने अन्तरंग में अध्यात्मविद्या को सर्वोपरि स्थान पर रखें, अन्यथा आत्महित के मुख्य लक्ष्य से भटक जाने की सम्भावना है | चतुर व्यक्ति सदैव ‘आदहिदं कादव्वं …’ का कुतुबनुमा अपने हाथ में रखते हैं |

सोहेइ सुहावेइ अ उवभुज्जंतो लवो वि लच्छीए |
देवी सरस्सई उण असमग्गा किं पि विणडेइ || - गउडवहो
अर्थ- लक्ष्मी तो थोड़ी भी उपभोग करो तो वह सुहाती है, सुखी करती है; किन्तु अपूर्ण सरस्वती उपहास ही कराती है |

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