डॉ. वीरसागर जी के लेख

9. जैन अर्थशास्त्र (Jain Economics) :arrow_up:

हम सब रात-दिन धन-दौलत में मग्न हैं | हमें सदा सर्वत्र वही वही दिखाई देता है | जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा दीखता है, वैसे ही हमें भी सदा सर्वत्र धन ही धन दिखाई देता है, उसके अलावा कहीं कुछ नहीं दीखता | हमारा सारा धर्म कर्म भी धनमूलक ही बना हुआ है | हम ‘ध्यान तेरस’ को भी ‘धन तेरस’ सुनते हैं | जाति से भी बनिया हैं | इसीलिए जैन आचार्यों ने हमें इसकी भाषा में तत्त्वज्ञान प्रदान किया है | जैन अर्थशास्त्र को समझने से सभी जैन सिद्धांत समझ में आ जाते हैं |
अकेले धर्म की बात करो तो लोग हमें एकांगी कहते हैं, क्योंकि उनके अनुसार चारों पुरुषार्थों की बात होनी चाहिए |
धन किसे कहते हैं / धन का लक्षण/ परिभाषा - सुख/उन्नति के साधन को धन कहते हैं |
धन के पर्यायवाची – धन, अर्थ, वित्त, द्रव्य, दौलत, वैभव, लक्ष्मी, सम्पत्ति |
धन के प्रकार/स्तर – अन्न-जल/समय /स्वास्थ्य(रसोई समाप्त हो रही है, ३०० वर्ष चलता है, आधा धर्मात्मा बन जाए )/परिवार/ज्ञान/केवलज्ञान/यश/धर्म
धन प्राप्ति का सच्चा उपाय –
लक्ष्मी यदा आगच्छति नारिकेलफलाम्बुवत् | लक्ष्मी यदा निर्गच्छति गजभुक्तकपित्थवत् |
शरीर भी धन है –आँख कीमती या कोहिनूर, पैर कीमती या जूते |
दरिद्रता की निंदा- क्षत्रचूड़ामणि 3/6-9,
नीतिवाक्यामृत 6 – 11 (तादात्विक, मूलहर और कदर्य के पास धन नहीं रहता )
दरिद्रता का महत्त्व –

  1. दारिद्दय तुज्झ णमो जस्स पसाएण एरिसी रिद्धी |
    पेच्छामि सयल लोए ते मह लोया ण पेच्छंति || -वज्जालग्ग
  2. मैं गुणी, मानी, ज्ञानी, विचक्षणों के पास रहती हूँ |
  3. आपने योगसिद्ध, अंजनसिद्ध आदि बहुत देखे होंगे, मैं दरिद्रयोगसिद्ध हूँ |
    एक महत्त्वपूर्ण बात- अन्यत्र तो जो जितना जोड़ता है उसकी उतनी अधिक पूजा-प्रतिष्ठा होती है, किन्तु भारत निराला है, यहाँ जो जितना छोड़ता है उसकी उतनी अधिक पूजा-प्रतिष्ठा होती है | इस बुनियादी बात को हम सबको, देश के कर्णधारों को गहराई से समझना चाहिए | हमें औरों का अन्धानुकरण नहीं करना चाहिए | आज हम अपनी इस मूल विशेषता को भूल गये हैं | संयम तप त्याग शिक्षा के मुख्य उद्देश्य रहे हैं, पर आज हमारा ध्यान बिलकुल नहीं है | कोई भी अपनी सन्तान को संयम, तप, त्याग के मार्ग पर नहीं लगा रहा है | सब जोड़ने में लग गये हैं, छोड़ने से बड़ा बनते हैं- यह तो कहीं समझ ही नहीं रहे हैं | संयम-रत्न, तपोधन, त्याग-सम्पत्ति |
    इसी मूल में भूल के कारण आज असंख्य समस्याएँ पैदा हो गईं हैं |
    लोग गाय तक को कत्लखाने में भेजने लग गये हैं, जैसा कि असंख्य वर्षों के इतिहास में कभी नहीं हुआ | आगे चलकर हो सकता है कि लोग इंसानों को भी कत्लखाने में भेजने लग जाएँ | धन की तृष्णा कभी पूरी नहीं होगी - ‘अत्थं अणत्थमूलं’ –भगवती आराधना, 1808

कृपण = जो कृपा का पात्र है/ जो अपने ही ऊपर कृपाण चलाता है |

लक्ष्मी का स्वरूप
( कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 10 से 20 )

जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं।
सा किं बंधेइ रईं इयर-जणाणं अपुण्णवंताणं ।।
अर्थ- जो लक्ष्मी पुण्यवान चक्रवर्तियों के पास भी शाश्वत नहीं रहती, वह अन्य अपुण्यवानों से क्या प्रेम निभाएगी?
कत्थ वि ण रमइ लच्छी कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे।
पुज्जे धम्मिट्ठे वि य सुवत्त-सुयणे महासत्ते।।
अर्थ- यह लक्ष्मी कहीं भी नहीं रमती, चाहे वह व्यक्ति कुलीन, धीर, पंडित, शूरवीर, पूज्य, धार्मिक, सदाचारी, सज्जन, महासत्त्व हो।
ता भुंजिज्जउ लाच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण।
जा जल-तरंग-चवला दो तिण्णि दिणाइ चिट्ठेइ।।
अर्थ- अत:लक्ष्मी को भोगों और दयायुक्त होकर दान में दो।यह लक्ष्मी जलतरंग के समान चंचल है,दो-तीन दिन ही टिकती है।
जो पुण लच्छी संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु।
सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स।।
अर्थ- जो व्यक्ति लक्ष्मी का संचय करता है,उसे न तो भोगता है न ही पात्रों को देता है, वह स्वयं को धोखा देता है, उसका मनुष्यपना निष्फल है।
जो संचिऊण लच्छी धरणियले संठवेदि अइदूरे।
सो पुरिसो तं लच्छी पाहाण-समाणियं कुणदि।।
अर्थ- जो व्यक्ति लक्ष्मी को संचित करके पृथ्वी में कहीं दूर गाड़ देता है, वह उस लक्ष्मी को पत्थर के समान बना देता है।
अणवरयं जो संचदि लच्छिं ण य देदि णेय भुंजेदि।
अप्पणिया वि य लच्छी पर-लच्छी-समाणिया तस्स।।
अर्थ- जो व्यक्ति निरंतर लक्ष्मी का संचय करता है, उसे न तो किसी को देता है, न भोगता है, उसकी वह लक्ष्मी अपनी होते हुए भी पराई के समान ही है।
लच्छी-संसत्तमणो जो अप्पाणं धरेदि कट्ठेण।
सो राइ-दाइयाणं कज्जं साहेदि मूढप्पा।।
अर्थ- जो व्यक्ति लक्ष्मी में आसक्त होकर स्वयं को कष्टों में रखता है, वह राजा आदि के ही कार्य सिद्ध करता है।
जो वड़्ढारदि लच्छिं बहुविह-बुद्धीहिं णेय तिप्पेदि।
सव्वारंभं कुव्वदि रत्ति-दिणं तं पि चिंतेइ।।
ण य भुंजदि वेलाए चिंतावत्थो ण सुवदि रयणीए।
सो दासत्तं कुव्वदि विमोहिदो लच्छी-तरुणीए ।।
अर्थ- जो व्यक्ति बहुत प्रकार से बुद्धि लगाकर लक्ष्मी को बढ़ाता है,कभी तृप्त नहीं होता, रात दिन उसी के बारे में सोचता है, सर्व प्रकार से आरंभ करता है, न समय पर खाता है, न चिंतायुक्त होकर रात में सोता है, वह व्यक्ति लक्ष्मीरूपी तरुणी में मोहित होकर उसका दासत्व करता है।
जो वड्ढमाण-लच्छी अणवरयं देदि धम्म-कज्जेसु।
सो पंडिएहिं थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी।।
अर्थ- जो व्यक्ति अपनी वर्द्धमान लक्ष्मी को निरंतर धर्म कार्य में देता है वही पंडितों के द्वारा स्तुत्य है और उसी की लक्ष्मी सफल है।
एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्म-जुत्ताणं।
णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवयं सहलं।।
अर्थ- इसप्रकार जानकर जो व्यक्ति धर्मयुक्त लोगों को निरपेक्ष भाव से लक्ष्मी देता है उसी का जीवन सफल है।

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