कृपया इसका भाव स्पष्ट करें।
As per my understanding, this means,
ज्ञानी पुरुष क़ो भोग में कोई दिलचस्पी नहीं होती।
लेकिन उनके पुण्य और भोगवाली कर्म के कारण उनको उन चीजों का भोगना आवश्यक होता है। जिससे उनके भोगवाली कर्म की निर्जरा हो सके।
तो ज्ञानी जो भोग भोगते हे उसका कारन भोग भोगना नहीं पर कर्म की निर्जरा करना होता है।
कर्मोदय के वश दिखने वाले ज्ञानी के भोग के समय मे जितनी शुद्ध परिणति है, वह निर्जरा का कारण है और शेष कषाय अंश (अनंतानुबंधी के अभाव सहित) यथायोग्य बंधन का कारण है।
यदि आगम अपेक्षा से देखे तो उपरोक्त पूरा वाक्य बनेगा परंतु यहाँ पर अध्यात्म मे दृष्टि शुद्धता पर ही है जिस कारण कथन प्रगट शुद्धता के अंश के फल का ही किया है।
बाहर से भोग की क्रिया होने/दिखाई देने पर एवं क्रिया के साथ यथायोग्य परिणाम होने पर भी अभिप्राय कुछ अलग ही है, उस अभिप्राय के जोर से यह कथन है।
श्रद्धा, ज्ञान (ज्ञानी शब्द से श्रद्धा और ज्ञान का सम्यक परिणमन) और चारित्त (ज्ञानी शब्द से चारित्त का सम्यक परिणमन और भोग शब्द से शेष रागांश का परिणमन) का मिला हुआ कथन किया गया है। परंतु फल विभाव का न बताकर उनके सम्यक परिणमन का बताया है।
वाक्य मे ‘भोग’ शब्द पर वजन न रखते हुए ‘ज्ञानी के’ शब्द की मुख्यता करके देखने पर आचार्य देव का अभिप्राय स्पष्ट झलकता है।
Aisa nahi hota h bhai ji…
Aur aisa bhi nahi ki gyani ko matra nirjara hi hoti ho… Bhumika anusaar bandh bhi hota h… Jab bandh h to uske karan swaroop m vaisa parinaam bhi hota hi h; kriya parinaam aur abhipray, teeno ka vichar karna chahiye.
Gnani ko bandh kaise hai ? Konsi bhumika anusar hai ?
Prakash kijiye !
Source: पं. टोडरमल जी, मोक्षमार्गप्रकाशक, p. 285. Link for pdf copy
The last line - देखो, सम्यक्त्व की महिमा ! जिसके बल से भोग भी अपने गुण को न कर सकें - says it all.
भोग अपने कार्य में (जीव को सुख का आभास कराना) सफल नहीं हो पाए, यह सम्यक्त्व की महिमा है | और मिथ्यादृष्टि के साथ वे भोग अपने कार्य को करने में सफल हो जाते है |
ज्ञानी को चारित्र में जितना दोष है उतना बन्ध होता है । (देखें, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 212-14) Link for pdf copy.
किन्तु अध्यात्म में अनन्तानुबन्धी के बन्ध की मुख्यता होने से अन्य तीन कषायों के बन्ध को गिना नहीं जाता |
भावदीपिका ग्रन्थ में भी बहुत सुन्दर तरीके से सम्यग्दृष्टि के भावों का चित्रण किया है (औदयिक भाव/ कषायभाव अंतराधिकार):
- “चारों कषायों का कार्य तो होता है लेकिन न्यायपूर्वक होता है | पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है लेकिन न्यायपूर्वक सेवता है |”
(यथा - रामचन्द्र जी ने भी युद्ध किया और रावण ने भी किया किन्तु एक का क्रोध न्याय के लिए था और दूसरे का अन्याय रूप | विष्णुकुमार मुनिराज ने जब बावनिया का भेष बनाकर तीन पैर जमीन राजा बलि से माँगी तब छल द्वारा कार्य की सिद्धि की लेकिन वह अनन्तानुबन्धी माया नहीं थी)
- “जिनको भय कषाय तो है लेकिन धर्म के उल्लंघन का भय है, संसार परिभ्रमण का भय है | इहलोक भय, पर लोक भय इत्यादि सप्त भय नहीं होते |”
इस भय को पं. टोडरमल जी ऐसा भी कहते है - अपने परिणाम बिगड़ने का भय होना चाहिए / जिनआज्ञा भंग होने का भय etc.
तात्पर्य यह है कि ज्ञानी को भी कषायें होगी, लेकिन वे अनंतानुबंधी की जाति की नहीं होगी और स्थिति-अनुभाग (duration-intensity) कम होने से उतना बन्ध नहीं होगा जितना मिथ्यात्व के साथ होता था |
P.S. जितनी महिमा हमें सम्यग्दर्शन की आती है, उतनी ही महिमा सम्यग्दृष्टि / ज्ञानियों (मुख्यतः चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) को संयम की आती है और उतनी ही महिमा संयमियों (मुख्यतः पाँचवां / छठा गुणस्थान) को पूर्ण वीतराग दशा की आती है |
1 second में असंख्यात समय होते है, इसलिए 1 second में उपयोग अशंख्यात विसयो पर जा सकता है, पर अभी हम इतना नोटिस नहीं कर पाते ।
ज्ञानी का उपयोग छन में राग और छन में, मै तो शुद्धात्म हूँ ऐसा एक सेकंड में ही कई बार होता है, वहाँ भोगते हुए भी बार बार उपयोग मैं तो शुद्धात्म हूँ इस पर जाता है, जिससे एक जोड़ रूप ज्ञान जिसे प्रत्यभिज्ञान कहते है वो बनता है, ये जोड़ रूप ज्ञान है जिसने 1 second में ही भोगते हुए भी बार बार मैं राग से भिन्न हूँ ऐसा जाना, इस जोड़ रूप ज्ञान के कारन ज्ञानी को भोगते हुए भी पाप का बंध नहीं होता, यदि वह १ मिनट भी मैं शुद्ध चैतन्य हूँ इस बात को भूलकर भोग में ही मग्न हो तो गुनिस्थान गिर जायेगा ।
ज्ञानी को निरंतर शुद्ध चैतन्य की प्रतीति बनी रहती है ।
४ थे गुनिस्थान में पाप की ६९ प्रकृतियो का बंध नहीं होता, सो भोगते हुए भी पाप नहीं बंधता । यह बात नवीन पाप का आस्रव नहीं होता यह बताती है । भोगते हुए भी निर्जरा होती है सो ऊपर जिनेश जी ने बताया है ।
भाई ! यदि (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) ज्ञानी को इस प्रकार की अनुभूति होती रहती है, तो फिर मुनिराजों को विशेष क्या होगा?
निर्णय बना रहता है, और उसे बनाए रखने के लिए उपयोग में ऐसा बार-बार याद करने की जरूरत नहीं है । याद उसे करना पड़े जो भूल गया हो ।
Source: बहेनश्री के वचनामृत (बोल नं. ३) (Link for PDF)
और यदि ज्ञानी जीव युद्ध के समय ऐसा बारंबार सोचता है तो उसमें से दो ही परिणाम निकलेंगे -
-
या तो वह युद्ध में हार जाएगा ।
-
या बीच में ही वैराग्य धारण करेगा ।
युद्ध आदि में अथवा भोगादिक में प्रवृत्ति भी हो और उपयोग शुद्धात्म में बार बार लगें - यह कैसे संभव है ?
४१ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता ।
Source: गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 95-96
प्रथम गुणस्थान के अंत में 16 प्रकृतियों की और दूसरे के अंत में 25 प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति होती है अर्थात् उस-उस गुणस्थान के बाद इन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । तथा तीसरे गुणस्थान में किसी भी प्रकृति की बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती । अतः चतुर्थ गुणस्थान में 41 प्रकृतियों (16 + 25) का बन्ध नहीं होता ।
(Just for the info - Gommatsaar Jeevkand as well as Karmakand are available in English as well)
दूसरी बात, ज्ञानी जो भोगों में प्रवृत्ति कर रहा है वह उसकी इन्द्रियों की पीड़ा के कारण है । चारित्रमोहनीय जन्य दुख तो उसे भी है ।
Source: प्रवचनसार, गाथा 63 (Link for the Pdf)
विशेष इतना है - अन्याय के भोगों का तो त्याग है ही, न्याय के विषय में भी अनासक्त है (ब्र. रवीन्द्र जी 'आत्मन्)
The words ज्ञान, राग and परिणति must be clarified.
By ज्ञान if we are referring to सम्यग्ज्ञान, it is a part of the परिणति.
What is शुद्ध परिणति ? →
Source: गुणस्थान विवेचन, p. 49 (Link for pdf)
Now this परिणति is one of the decisive factor for निर्जरा (the other one being शुद्धोपयोग). It is because of this that we hear very often that a मुनिराज is doing much more निर्जरा while having आहार etc. as compared to a श्रावक (householder) who is in शुद्धोपयोग.
- यदि हम उन्हें विकल्प भी कहते है, तो वे विकल्प बुद्धिपूर्वक है या अबुद्धिपूर्वक ?
भोगों में प्रवृत्ति के समय बुद्धिपूर्वक तो भोगों के विकल्प हो रहे है, और इतने उत्कृष्ट तत्त्वविचार के विकल्प अबुद्धिपूर्वक तो मुनियों के भी होना कठिन है, (चतुर्थ गुणस्थानवर्ती) ज्ञानी को कैसे होंगे ?
Source: मोक्षमार्गप्रकाशक, आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी, pp. 200-201.
And also,
Source: गुणस्थान विवेचन, p. 152.
In short, they can be spontaneous but not random. There are some conscious efforts involved.
We must also think of the सम्यक्त्व of तिर्यंच and नारकी जीव । सम्यक्त्व has been glorified to a very great extent. It is a simple phenomenon and quite possible to attain here and now. The moment we start saying this - ज्ञानी तो ऐसा सोचते है … (not that it is absolutely wrong to say such things but it is not necessary either) … we start treating that person (ज्ञानी जीव) who is not eligible to commit any error… which is not the case.
I hope I was able to cover most of the points from that conversation.
- ज्ञानी के भोग भी निर्जरा के कारण हैं।
- ज्ञानी के भोग ही निर्जरा के कारण हैं।
- ज्ञानी के भोग निर्जरा के भी कारण हैं।
- ज्ञानी के भोग निर्जरा के ही कारण हैं।
1st - correct.
As, he is the one who has bhog as well as abhogi shudh-dasha
2nd incorrect
ज्ञानी की भोगमयी और निर्भोगमयी दोनों ही अवस्थाएँ निर्जरा की कारणभूत हैं।
3rd correct
भोग के समय कर्म का उदय होने से सविपाक निर्जरा तो है किन्तु साथ में चारित्रमोहनीय सम्बन्धी राग होने से बन्ध भी।
4th incorrect
उपरोक्त से स्वतः सिद्ध।
इसका स्पष्ट उदाहरण भरत चकवर्ति है सारा जीवन भोग किया और अंतर्मूर्हत में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया
क्ष यिक सम्यकदृष्टि के भोग निर्जरा के कारण है
क्या इस कथन को करणानुयोग के अनुसार सिद्धि किया जा सकता हैं? क्या चतुर्थ गुणस्थानवर्ती (esp. क्षयोपशमिक) सम्यक्त्वी के भी निर्जरा प्रति समय होती हैं?
संवर होने के बाद जो भी कर्मों का ख़िरना हो रहा है वह चाहे सविपाक हो या अविपाक सब निर्जरा है। बन्ध व्युच्छित्ति आदि से समझ सकते हैं।